August 23, 2017

जापान के हरडपोपो



पता नहीं मंडयाली बोली के इस शब्द “हरडपोपो” से आज कितने लोग परिचित रह गए होंगे. क्योंकि समाज का यह वर्ग अब तकरीबन लुप्त ही हो गया है. पर पुराने लोगों को इनकी अवश्य याद होगी. ये लोग घर घर घूम कर लोगों को उनका भविष्य बताया करते थे. कई बार हाथ देख कर और कई बार फेस रीडिंग या ऐसे ही कुछ अन्य तरीके अपना कर. इन लोगों की एक विशेष प्रकार की वेशभूषा हुआ करती थी. अपने काम के किये ये अधिकतर अनाज आदि लिया करते थे
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       चिर काल से लोगों में अपने भविष्य के प्रति जिज्ञासा रही है. सब जानना चाहते हैं कि भविष्य में उनके साथ क्या होने वाला है. मैं दुनिया में जहां भी गया, मैंने ये हरड पोपो या भविष्य वक्ता किस्म के प्राणी अवश्य देखे. 

आइये आज आपको जापान के हरडपोपुओं के बारे में बताते हैं.

 
क्योतो की गेबोन स्ट्रीट

मूझे जापान में कुछ सप्ताह बिताने का अवसर मिला था. मैं क्योतो शहर की प्रसिद्ध व्यापारिक सड़क, गेबोन स्ट्रीट के मैं एक होटल में रुका था. वहां मैं लगभग एक सप्ताह रहा. शाम के समय सड़क के किनारे रोज़ वहां एक जापानी भविष्य वक्ता महिला बैठी होती थी. वह हमेशा पारंपरिक जापानी वेशभूषा, किमोनो पहने रहती. आपको मैं यहाँ बता दूं कि हालांकि किमोनो जापान की पारंपरिक और राष्ट्रीय वेशभूषा है, पर इसे महिलायें अब केवल विशेष अवसरों पर ही पहनती हैं और रोजाना उपयोग के लिए पश्चिमी ड्रेस जैसे स्कर्ट या जीन्स आदि  ही का प्रयोग करती हैं. मुझे ये बताया गया कि किमोनो सिलवाने में खर्च भी बहुत आता है और फिर इसकी संभाल भी करनी पड़ती है. महिलाएं किमोनो के साथ वह बहुत ही गहरा मेकअप भी करती हैं. उनका चेहरा इतना अधिक पुता होता है कि चमड़ी नज़र नहीं आती. 
क्योतो की वह जापानी हरड पोपो महिला

यह जापानी महिला सड़क के किनारे एक स्टूल रख कर बैठी होती. उसके आगे एक मेज़ हुआ करता था जिस पर एक मेजपोश बिछा होता था. मेजपोश पर जापानी भाषा में कुछ पंक्तियाँ लिखीं होती थीं जो शायद उसका साइन बोर्ड होती थी. मेज़ के ऊपर एक मोमबती जली होती थी और उस मोमबती को एक विशेष लैम्प शेड जिस पर भी जापानी भाषा में कुछ लिखा रहता था, रखा होता था. यह महिला इस तरह बैठ कर अपने ग्राहकों का इंतज़ार करती रहती थी.

मैं क्योतो विश्वविद्यालय के एम् एस सी हौरटीकल्चर के छात्र छात्राओं के बीच   

मैं क्योतो में पांच या छः दिन रुका और हर शाम उस महिला को वहीं बैठे देखा करता था. मैंने एकाध बार उससे बात करने की कोशिश की पर उसको सिवाय जापानी के कोइ दूसरी भाषा नहीं आती थी. एक दिन मैंने उसकी एक फोटो भी खेंची. हाँ वह जब भी मैं उधर से गुजरता, तो वह मुस्करा कर मेरे अभिवादन का उत्तर अवश्य दे दिया करती थी. पता नहीं यह संयोग था या सच्चाई, पर मैंने उस महिला के पास कभी कोइ ग्राहक नहीं देखा. इसलिए कह नहीं सकता कि वह इस काम से कितना कमा लेती थी.

क्योतो के बाद मेरा अगला पड़ाव टोकियो था. वहां मैं एक सप्ताह रहा. टोकियो में मैंने दूसरी किस्म के हरड पोपो देखे. ये मर्द थे और मशीन से हाथ देखते थे. इनके पास एक डिब्बा किस्म का उपकरण होता था जो एक रेहडीनुमा ठेले पर रखा होता था. इस उपकरण के ऊपर एक शीशा लगा होता था जिसके ऊपर ग्राहक को अपनी हथेली रखनी होती थी. हरड पोपो एक स्विच दबाता, उपकरण में कुछ आवाजें होतीं और फिर नीचे से दो कागज़ बाहर आ जाते जैसे कि कंप्यूटर के प्रिंटर से आते हैं. इनमे से एक कागज़ पर आपकी हथेली की लकीरों की फोटोकॉपी होती और दूसरे कागज़ पर आपका भविष्य. हरड पोपो कहता कि उसके उपकरण में कम्प्युटर लगा है जो आपके हाथ की रेखाओं को पढता है और भविष्य बताता है. उस समय इस काम के वह 200 जापानी येन यानि लगभग 120 भारतीय रुपये लेता. 

क्योंकि इनका भी सारा काम जापानी भाषा में हो रहा था, इस लिए मेरी समझ से बाहर था. वरना शायद तमाशा देखने के लिए ही शायद मैंने भी 200 येन खर्च कर दिए होते.

       अगली बार आपको अर्जेंटीना के हरड पोपुओं के बारे में बताउंगा.       

August 20, 2017

बग़दाद यूनिवर्सिटी में मिला करते थे सचमुच के "पे पैकेट"



सन 1980-81 में मुझे भारत सरकार के फौरेन अस्साइनमेंट सैक्शन के द्वारा बगदाद विश्वविद्यालय के कृषि कॉलेज मे नौकरी करने का अवसर मिला था. मैं वहां हौरटीकल्चर का असिस्टैन्ट प्रोफ़ेसर नियुक्त हुआ था. 

उस समय इराक़ अपनी आर्थिक समृधि की उच्चतम सीमा पर था. तब एक इराकी दीनार के 3.3 अमरीकी डॉलर मिल जाया करते थे जबकि आज एक अमरीकी डॉलर लेने के लिए इराकियों को 1185 दीनार देने पड़ते हैं. इस से ही आप यह अंदाज लगा सकते हैं कि इराक़ पिछले 35-36 कहाँ से कहाँ पहुँच गया है. जब मैं वहा पहुंचा, तब ईरान-ईराक युद्ध को शुरू हुए दो महीने हो चुके थे पर तब तक इस युद्ध का लोगों के दैनिक जीवन पर कोइ असर नहीं पडा था. दैनिक उपयोग की सब चीजें ना केवल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध ही थीं पर बहुत सस्ती भी थी. ये वो दिन थे जब भारत में एक अच्छा रेडिओ कैसेट प्लेयर भी एक साधारण भारतीय यूनिवर्सिटी अध्यापक कया ड्रीम पोजेशन हुआ करता था. वी सी आर तब शुरू ही नहीं हुए थे. इसलिए उन दिनों जिसको इराक में नौकरी मिल जाती थी, उसे भाग्यशाली समझा जाता था.
उस समय के बग़दाद शहर का एक दृश्य

        ईराक़ी सरकार विदेशी प्रोफेसरों को बहुत अच्छा वेतन देती थी. एक पी एच डी प्रोफ़ेसर का मूल वेतन 400 दीनार था और इसमें पांच दीनार प्रतिवर्ष उसके शैक्षणिक अनुभव के जोड़े जाते थे. इस हिसाब से मेरा मासिक वेतन 435 दीनार तय हुआ था जो 1435 अमरीकी डॉलर यानि उस समय के हिसाब से लगभग 11,000 भारतीय रुपयों के बराबर था. तब सोलन के कृषि कॉलेज में जहां मैं पढाता था, में मेरी तनख्वाह 1100 रुपये भी नहीं थी. इसलिए मेरे लिए यह छप्पर फाड़ रकम थी. फिर इराक़ में कोइ इनकम टैक्स आदि भी नहीं था. उस पर एक बड़ी सुविधा यह भी थी कि विदेशी कर्मचारी अपने वेतन का 75 प्रति भाग मनचाही मुद्रा में वापस अपने देश ले जा सकते थे. ईराक में उस समय जीवन यापन बहुत ही सस्ता था और अच्छी तरह  रहकर भी आप आसानी से अपनी आधी तनख्वाह बचा लेते थे. अनेक लोग तो पूरा 75 प्रतिशत भी बचा लिया करते थे. मेरे पहुँचने के कुछ सप्ताह बाद मेरी पत्नी और दोनों बेटियां भी मेरे साथ रहने बग़दाद आ गयीं थी.

        वहां वेतन महीने की पहली तारीख को नहीं बल्कि पिछले महीने की 16 तारीख को दिया जाता था. यानि जनवरी का वेतन 16 दिसंबर को मिल जाता था. उनका वेतन देने कया तरीका भी बहुत ही अलग था. असल में वेतन भुगतान का ऐसा तरीका मैंने केवल इराक में ही देखा है हालांकि मैंने भारत से बाहर कुछ और देशों में भी काम किया है. 

बग़दाद यूनिवर्सिटी का कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर,
                                                               जहां मैं काम किया  करता था.
इराक़ में वेतन के “पे पैकेट” दिए जाते थे. इस से पहले मैंने पहले "पे पैकेट" शब्द केवल सुना या पढ़ा ही था. मेरा विचार था कि “पे पैकेट” सिर्फ एक व्यावसायिक शब्द या मुहावरा ही है। सचमुच के पे पैकेट भी हो सकते हैं, यह मैंने बग़दाद में ही देखा.

       शिक्षकों को वेतन कॉलेज के अकाउंट्स ऑफिस, जिसे वहां “मह्सबा” कहते थे, में मिलता था. 16  तारीख को सबको सूचित कर दिया जाता कि कि वे मह्सबा में आकर अपना अपना वेतन ले लें. मह्सबा कॉलेज परिसर में ही एक इमारत की दूसरी मंजिल पर था. यहाँ बाहर एक बरामदा था, जिस पर एक बड़ी सी मेज़ रखी होती थी. उस मेज़ पर खाकी रंग के लिफ़ाफ़े पड़े होते थे जिनमे वेतन की रकम रखी होती थी. प्रत्येक लिफ़ाफ़े के बाहर शिक्षक का नाम और रकम की राशि लिखी होती थी. वहां कोइ चौकीदार या कैशियर किस्म का कर्मचारी नहीं होता था. लोग आते, मेज़ पर पड़े लिफाफों के ढेर में से अपने नाम का लिफाफा ढूँढ़ कर किनारे को हो जाते. वहां बगल में ही एक दूसरी मेज़ भी रखी होती थी जिस पर एक रजिस्टर पड़ा होता था. उस रजिस्टर में सबके नाम और वेतन की राशि लिखी होती. लोग रजिस्टर में अपना नाम खोज कर उसके आगे दस्तखत कर देते थे. यही वेतन प्राप्ति रसीद होती थी.

बग़दाद यूनिवर्सिटी की प्रशासनिक बिल्डिंग 

       इस सारे सिस्टम को देख कर मैं बहुत ही हैरान हुआ. रुपयों से भरे लिफ़ाफ़े मेज़ पर ऐसे ही बिना किसी निगरानी के पड़े होते. लोग आते और केवल अपने ही नाम वाला लिफाफा उठाते. जब वे रकम को गिनते तो वह ठीक उतनी ही निकलती जितनी कि लिफ़ाफ़े के बाहर लिखा होता. मैंने भी अपने “पे पैकेट” में रखे नोट गिने, वे पूरे 435 दीनार निकले.

       हालांकि सब मेरे सामने ही हो रहा था पर मुझे फिर भी इस पर विश्वास नहीं आ रहा था. मैंने एक इराकी साथी से पूछा कि अगर किसी कारण पैकेट में पूरे पैसे ना निकलें तो क्या होता है. वह बोला कि कोइ बात नहीं आप अन्दर जाकर कैशियर को बता दें और वह आपको पैसे दे देगा. 

       मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई और मैंने थोड़ा झिझकते हुए कहा कि अगर कोइ झूठ ही कह दे? वह बोला कि इराक में ऐसा कोइ नहीं करता. मेरी अब भी तसल्ली नहीं हुई थी और मैंने पूछा कि अगर लिफाफों से किसी ने कुछ दीनार चोरी कर के निकाल लिए हों तो? इस पर वह बोला कि ऐसा आज तक तो यहाँ इस मह्सबे में नहीं हुआ है.

       उसका कहना सच था. क्योंकि जितने दिन मैं वहां रहा, ना कभी मेरे “पे पैकेट” में पैसे कम निकले और ना ही यह सुनने में नहीं आया कि किसी और के लिफ़ाफ़े में पैसे कम निकले हों या चुरा लिए गए हों या कोइ लिफाफा ही चुरा लिया गया हो. 

       आज पता नहीं वहां क्या स्थिति है पर उस वक्त सचमुच ईराक बहुत ही अच्छा देश था.

August 14, 2017

कैसे हुआ था भारत आज़ाद मंडी शहर में



भारत की स्वतन्त्रता की घोषणा 14 अगस्त 1947 रात के ठीक बारह बजे हुई थी और इसी के साथ भारत एक आज़ाद देश बन गया था।  सारे भारत में उस दिन समारोह हुए थे। उस ऐतिहासिक दिन हमारे शहर मंडी में भी एक समारोह हुआ था जो मुझे अच्छी तरह याद है। मेरी उम्र तब आठ साल थी।
आज का मंडी शहर 
       पर इस समारोह के बारे में बताने से पहले मैं अपने उन मित्रों को जो मंडी के निवासी नहीं हैं, मंडी के बारे में कुछ जानकारी देना चाहूँगा. मंडी हिमाचल प्रदेश का एक छोटा शहर है और अब जिला भी है. स्वतन्त्रता से पहले मंडी एक रियासत हुआ करती थी जिस पर उस समय राजा जोगेंद्र सेन राज किया करते थे. स्वतंत्रता के बाद इस रियासत का हिमाचल प्रदेश में विलय कर दिया गया और इस के साथ एक अन्य रियासत सुकेत को मिला कर आज के मंडी जिले कया गठन किया गया. मंडी उस समय की काफी प्रगतिशील रियासतों में एक थी. यहाँ बिजली थी, दो तीन हाई स्कूल थे, हॉस्पिटल था, टेलीफोन भी थे. उस समय मंडी में हिमाचल के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे लोग थे.

मंडी के तत्कालीन शासक राजा जोगिन्द्र सेन 


       रियासत के दिनों हमारा परिवार पैलेस (जहां अब सोल्जर बोर्ड तथा फौजी केंटीन है) के स्टाफ क्वार्टरों में रहता था। मेरे स्वर्गीय पिता मियां नेतर सिंह राजा मंडी के निजी स्टाफ में थे. निजी स्टाफ के लगभग सारे कर्मचारी उन स्टाफ क्वार्टरों में रहा करते थे। उस दिन क्वार्टरों के निवासियों में कुछ विशेष हलचल थी और सब बड़े आपस में यह कह रहे थे की आज रात को आज़ादी आएगी।
       हमारे साथ वाले क्वार्टर में मिस्त्री शेर सिंह रहते थे। पैलेस के बिजली से जुड़े सारे काम उनके जिम्मे थे। पैलेस के तमाम बिजली के उपकरणों का रख रखाव भी उन्हीं ज़िम्मेदारी थी। इन उपकरणों में दो सिनेमा प्रॉजेक्टर भी थे जिन पर कभी कभी वो हमको कार्टून फिल्मे दिखाया करते थे जो शायद पैलेस में राजकुमार (आज के मंडी के राजा अशोक पाल सेन, जो शाम को अक्सर राजमहल होटल में टीवी देखते रहते हैं) और राजकुमारी के देखने के लिए मंगाई हुई होती थीं। इस कारण मिस्त्री जी (उनको हम इसी नाम से संबोधित किया करते थे, उन दिनों अंकल आंटी का रिवाज अभी नहीं चला था) हम बच्चों में बहुत लोक प्रिय थे। 

हम बच्चों को वह ऐतिहासिक क्षण दिखाने वाले 
मिस्त्री शेरसिंह अपनी धर्मपत्नी जसोदा के साथ 

       आज़ादी का समारोह चौहटे में आयोजित किया जा रहा था। शायद आयोजकों की इच्छा हुई होगी की इस विशेष दिन पर समारोह में लाउड स्पीकर भी लगाया जाए। मेरा अंदाजा है कि उस वक़्त मंडी में एक ही लाउडस्पीकर सिस्टम था और वह भी केवल पैलेस में। इसलिए पैलेस से यह साउंड सिस्टम माँगा गया. पैलेस की और से मिस्त्री जी को यह काम सौंपा गया और उन्होंने साउंड सिस्टम तैयार करना शुरू किया। मिस्त्री जी के मन में अचानक यह विचार यह आया कि क्यों न बच्चों को भी आज़ादी आने का यह जश्न दिखाया जाये और उन्होंने मेरी ही उम्र की अपनी बेटी चंद्रा, भतीजे रूप सिंह और मुझे भी साथ चलने को कहा। हम तीनों बहुत ही प्रसन्न थे। 
मंडी के वर्तमान राजा श्री अशोक पाल सेन  

       समारोह के लिए चौहटे की भूतनाथ वाली साइड पर एक मंच बनाया गया था जिस पर दरियाँ बिछायी गई थी। मंच के एक कोने पर मिस्त्री जी ने अपना साउंड सिस्टम सेट किया और लाउड स्पीकर भी लगा दिया। स्टेज पर ही एक छोटा मेज़ रखा गया जिस पर एक रेडियो सैट लगा दिया गया। फिर इस रेडियो के आगे माइक्रोफोन रख दिया गया और इस के साथ ही रेडियो में चल रहा प्रसारण लाउड स्पीकर में आने लगा। मंच के आगे कुछ दरियाँ बिछा दी गई थीं जिस पर लोग आ कर बैठने शुरू हो गए थे। क्योंकि हम तीनों मिस्त्री जी के साथ थे जो अपने लाउडस्पीकरों के कारण उस समारोह के बहुत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे, इसलिए हम तीनों को को भी वी आई पी ट्रीटमेंट मिला। हम तीनो को आम पब्लिक के साथ नीचे दरियों के बजाय स्टेज पर बिठाया गया, हालांकि बैठे हम वहाँ भी नीचे ही थे।
       उस समय तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया था पर अब में समझ सकता हूँ। रेडियो पर शायद कमेंटरी किस्म का प्रोग्राम आ रहा था। स्वतन्त्रता की घोषणा रात को बारह बजे दिल्ली में होनी थी। दिल्ली में चल रहे समारोह की जानकारी वहाँ उपस्थित जन समूह को रेडियो के माध्यम से दी जा रही थी। फिर अचानक जनसमूह में जोश आ गया और लोग खुशी के मारे झूम उठे और नारे लगाने लग गए। ध्वजारोहण भी हुआ था। मुझे याद नहीं कि मंडी में उस रात झंडा किसने फहराया था. शायद स्वामी पूर्णानन्द ने यह काम किया था. उस क्षण शायद दिल्ली में भारत के आज़ाद होने की घोषणा हुई होगी। चौहटे के कोर्ट वाले सिरे पर पटाखे छोड़े जाने लगे। 5-6 हॉट एयर बैलून, जिन्हें बच्चे उस वक़्त “पेड़ू” कहा करते थे, भी छोड़े गए।
       फिर आया हम लोगों के लिए सबसे बढ़िया क्षण। बड़ी बड़ी परातों में गरम गरम हलुआ आया और लोगों में बांटा जाने लगा। आज़ादी क्या होती है इसकी तो हमको समझ नहीं थी, पर उस दिन के हलुए का स्वाद आजतक भी नहीं भूला है। क्यों कि हम मिस्त्री जी के साथ थे और स्टेज पर थे, इसलिए हमको सामान्य दर्शकों से ज्यादा, दोनों हाथों की हथेलियाँ भर के हलुआ मिला और हमने पेट भर के खाया।
       तो ऐसे हुआ था मंडी शहर में भारत आज़ाद।   

August 7, 2017

अमरीका के पोर्टेबल टॉयलेट



खेत में रखा एक पोर्टेबल टॉयलेट
आजकल मोदी जी द्वारा शुरू किये स्वच्छता अभियान के कारण टॉयलेट चर्चा में हैं. आइये आज मैं भी इस विषय पर आप मित्रों को टॉयलेट इस के बारे में अपना एक अनुभव बताता हूँ. क्या आपने कभी चलते फिरते यानि पोर्टेबल टॉयलेट के बारे में सुना है? और वह भी ऐसे स्थान पर जहां हम भारतीय टॉयलेट की आवश्यकता ही नहीं समझते, मेरा मतलब है खेतों में. मुझे विशवास है कि बहुत ही कम लोगों को इस बात का  पता होगा कि दुनिया के एक देश में खेतों में खेत मजदूर ऐसे टॉयलेट का प्रयोग करते हैं. भारत के गाँवों में तो खेत इस काम के लिए सबसे लोकप्रिय स्थान है. पर मैंने अपने अमरीका प्रवास के दौरान ये पोर्टेबल टॉयलेट देखे. इस से पहले मुझे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ नहीं था कि कहीं खेतों में निवृत्त होने के लिए कहीं टॉयलेट का प्रयोग भी किया जाता होगा.

       वैसे मैं अमरीका कई बार गया हूँ, पर सन 2005 के टूर में मुझे अमरीका की विश्वप्रसिद्ध नर्सरी, स्टार्क  ब्रदर्स नर्सरी में जाने जाने का अवसर मिला. बात को आगे बढाने से पहले मैं पाठकों को, विशेषकर हिमाचली पाठकों को, इस नर्सरी के बारे में थोड़ी सी जानकारी देना चाहूंगा. यह वह नर्सरी है जहां सेब की डैलिशियस किस्मे रैड, गोल्डन, रॉयल डैलिशियस आदि विकसित हुई थीं. सत्यानंद स्टोक्स सेब की ये किस्मे इसी नर्सरी से हिमाचल में लाये थे. हालांकि हिमाचल में सेब की खेती अंग्रेज इससे पहले शुरू कर चुके थे, पर हिमाचल में सेब की बागबानी इन्हीं किस्मो के आने पर सफल हुई.

नर्सरी के गेट के पास खडा मैं
 
        यह एक बहुत ही बड़ी नर्सरी है और 200 वर्ष पुरानी है. यहाँ रोजाना सैकड़ो मजदूर और कर्मचारी काम करते हैं. इस नर्सरी का इतिहास भी बहुत दिलचस्प है. पिछले 200 सालों में इस नर्सरी में कई उतार चढ़ाव आये. पर इस नर्सरी की कहानी किसी दूसरी पोस्ट में बताउंगा.

       इस नर्सरी में मैंने एक अजूबा देखा। ऐसा मैने अपने जीवन में पहली बार ही देखा हालांकि मैं दुनिया के बहुत देशों में घूम चुका हूँ। यह अजूबा था चलता फिरता शौचलाय। यहाँ काम करने वाले मजदूरों को हमारे यहाँ की तरह निवृत्त होने के लिए खेत का कोई कोना नहीं खोजना पड़ता। वे आराम से जब भी आवश्यकता पड़े तो इस शौचालय का प्रयोग कर सकते हैं। 

अन्य साथियों के साथ नर्सरी में मैं 

ये शौचालय लकड़ी और टीन की चद्दरों से बने होते हैं. इनमें कमोड रखा होता है. पानी और और  टॉयलेट पेपर की भी समुचित व्यवस्था होती है. शौचालयों को सुबह गाड़ियों में लाद कर, जिन खेतों में मजदूरों ने काम करना होता है, वहाँ रख दिया जाता है और शाम को छुट्टी होने पर वापिस ले जाया जाता है। और इनकी सफाई आदि कर दी जाती है.

खेत में रखा एक दूसरा पोर्टेबल टॉयलेट

मेरा इन टॉयलेटो को अन्दर से देखने का मन हुआ पर मैं अपने इस कुतूहल को अपने अन्य साथियों, जो सब अमरीकन थे, पर प्रकट नहीं होने देना चाहता था. इसलिए मैं चुपके से इनके भीतर गया और सारा सिस्टम देखा. फिर चुपके से ही इन शौचलायों के कुछ चित्र लिए ताकि वापिस भारत जाकर अपने साथियों को साथियों को दिखा सकूँ।

आपका क्या विचार है? कभी हमारे खेत मजदूरों को भी ऐसी सुविधा मिल सकेगी?