August 13, 2018

वाघा बॉर्डर – साठ साल पहले का



एक दिन मैंने जब टी वी पर वाघा बॉर्डर पर रोज शाम को होने वाला “बीटिंग द रिट्रीट” समारोह देखा तो मुझे 60 साल पहले का वह दिन याद आ गया जब मैं पहली बार वहां गया था. आज वाघा के इस समारोह को देखने वहां कई हज़ार लोग रोज़ जाते हैं. वहां दर्शकों के लिए विशेष दर्शक दीर्घाएं  बन चुकी हैं जहां 15 से 20,000 लोग बैठ सकते हैं. ऐसा ही दृश्य पाकिस्तान की ओर ही दिखता है. वास्तव में रोज़ शाम को होने वाला यह समारोह आज एक विशाल व्यापारिक टूरिस्ट इवेंट बन गया है और दोनों ओर के वासियों के लिए आमदनी का साधन भी हो गया है. पर शुरू में यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था. आज वहां जाने वाले लोग ये सोच भी नहीं सकते कि वाघा बॉर्डर कभी ऐसा भी हुआ करता था.
 आज के वाघा बॉर्डर के कुछ दृश्य

                                 वाघा बॉर्डर के द्वार  


               पाकिस्तान की ओर की दर्शक दीर्घा में बैठे पाकिस्तानी नागरिक

                   भारतीय दर्शकों के बीच मैं और मेरा मित्र राजेन्द्र वर्मा

आज के दोनों देशों के विशाल द्वार भी वहां नहीं थे। इसके बजाय दो छोटे छोटे गेट थे, बिलकुल उसी साइज़ के जैसे कि आज चंडीगढ़ की कोठियों के होते हैं. दोनों गेटों पर भारत और पाकिस्तान का एक एक सैनिक, लगभग एक दूसरे से सटे हुए, खड़े होते थे. दोनों गेटों के बीच में सड़क पर एक कोइ तीन इंच चौड़ी, सफ़ेद रेखा बनी थी, जो अंतर्राष्ट्रीय सीमा को दरसाती थी.

मैं पहली बार वहां 1958 में गया था. उस समय मैं लुधियाना के गवर्नमेंट एग्रीकल्चर कौलेज (तब अभी पंजाब ऐग्रिकचरल यूनिवर्सिटी नहीं बनी थी) में बीएससी फाइनल का छात्र था. मेरा मेजर विषय होर्टीकल्चर था. वाघा के साथ अटारी में उस समय कृषि विभाग का एक फल अनुसंधान केद्र हुआ करता था. हम होर्टीकल्चर के छात्रों को उस अनुसंधान केंद्र को दिखाने के लिए कॉलेज की ओर से वहां ले जाया जाता था. अटारी का यह टूर भी हमारे पाठ्यक्रम का एक हिस्सा था.
हम लुधियाना से रेल द्वारा पहले अमृतसर और फिर रेल से ही अमृतसर से अटारी गए. अटारी उस लाइन का अंतिम भारतीय रेलवे स्टेशन है.
जब हम लोगों ने रिसर्च स्टेशन देख लिया तो हम में से 4-5 मित्रों ने पाकिस्तान सीमा देखने का निश्चय किया. हम सड़क पर पैदल आगे बढ़ रहे थे. सड़क के एक ओर पुलिस, कस्टम और अन्य विभागों की चेक पोस्टें थी. उन दिनों भारत में शायद पाकिस्तान के मुकाबले सोना महँगा हुआ करता था इसलिए सोने की स्मगलिंग होती थी. कस्टम वाले इसी पर ही अधिक ध्यान दिया करते थे.
सड़क पर कोइ आवाजाही नहीं थी. हमको एक पुलिस वाले ने पूछा तो हमने उसे बताया कि हम छात्र हैं और लुधियाना से अटारी का बागीचा देखने आये थे. अब बॉर्डर देखना चाहते हैं. पुलिस वाला हरियाणा का था. हम में एक छात्र रोहतक का भी था जिसे उस पुलिस इंस्पेक्टर ने पहचान लिया. वह भला ज़माना था. इसलिए पुलिस इंस्पेक्टर ने हमसे बहुत अच्छा बर्ताव किया और फिर कहने लगा कि बेटो चलो मैं तुमको बॉर्डर दिखाता हूँ. उसने हमको पहले पुलिस और फिर कस्टम के दफ्तर दिखाए और वे चीजें भी दिखलाई जिनका उपयोग स्मगलर लोग छुपा कर सोना लाने के लिए किया करते थे.
हम आगे बढ़ते गए. आगे एक जगह दो गेट बने थे. जब हम गेटों के पास पहुंचे, तो वहां मौजूद पुलिस वालों ने हमको रोका और कहा कि यहाँ भारत की सीमा समाप्त होती है और इससे आगे जाने के लिए हमारे पास पासपोर्ट और पाकिस्तान का वीजा होना चाहिए. मैं यहाँ बताना चाहूंगा कि सारी बातचीत बहुत ही सद्भावपूर्ण वातावरण में हो रही थी. दोनों ओर की पुलिस वाले हमसे बहुत ही प्रेमपूर्ण तरीके से बात कर रहे थे.
वहां दोनों ही देशों के पुलिस वाले थे. ड्यूटी वाले दो सिपाहियों को छोड़ कर बाकी सादे लिबास में थे. वहां एक बहुत ही दिलचस्प बात हुई. पाकिस्तान के एक पुलिसमैन, जो शायद सब इंस्पैक्टर रैंक का था, ने मुझसे पूछा की बेटे तुम कहाँ से हो. उसने मेरी बात के लहजे से अंदाज लगा लिया था कि मैं मंडी साइड से हूँ. मैंने उसे बताया कि मैं मंडी से हूँ. यह जान कर वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने मेरे कंधे थपथपा कर अपनेपन का इज़हार किया. उसने बताया कि वह भी उसी इलाके से है. फिर उसने आगे कहा कि उनका घर भाम्बला में था और वहीं से उनका परिवार पाकिस्तान आया. उसने हमसे कहा कि अगर हम चाहें तो वो हम को कुछ दूर आगे तक पाकिस्तान में ले जा सकता है. पर हम घबरा गए. एक साथी चुपके से बोला कि यार इन पाकिस्तानियों क्या ऐतबार, कहीं उस तरफ ले जा कर कैद ही कर लें. हम उन सब का शुक्रिया अदा कर के वापिस आ गए.
1979 का  वाघा बॉर्डर - गेट पर मैं, मेरी पत्नी और दोनों पुत्रियाँ 
उसके 12 साल बाद 1979 में मुझे दोबारा वहां जाने का मौक़ा मिला. तब मैं सोलन में कार्यरत था. हमें एक शादी में धर्मशाला जाना था. हमने तय किया कि सोलन से रेल मार्ग से अमृतसर होते हुए पठानकोट पहुंचा जाए और फिर वहां आगे लिए बस ले ली जाए. हम चाहते थे कि हमारी दोनों बेटियां रेल के सफ़र का आनंद ले लें और उनको हम अमृतसर का स्वर्ण मंदिर और वाघा बॉर्डर से विदेश (पाकिस्तान) की भी झलक दिखा दें. उस वक्त भी वाघा बॉर्डर वैसा नहीं था जैसा आज है (देखें चित्र). हालांकि शाम को दोनों देशों के झंडे तब भी उतारे जाते थे. पर आज के जैसा माहौल नहीं होता था. इस समारोह का टूरिज्म के लिए उपयोग करने का यह जबरदस्त बिजनेस आइडिया पता नहीं किस को आया. पर जो भी हो वह आदमी दिमाग वाला होगा क्योकि इस रोज के  30-40 मिनट के कार्यक्रम ने वहां के दोनों देशों के निवासियों के लिए आमदनी का अच्छा खासा साधन पैदा कर दिया है.
मुझे अपने संग्रह में हमारी इस 1979 की वाघा यात्रा की एक कलर ट्रांसपेरैंसी मिली है जो मैं स्कैन कर के यहाँ दे रहा हूँ. इस से आपको उस वक्त के और आज के वाघा में अंतर पता लग जाएगा.  

June 4, 2018

“मैन” नहीं, “इण्डिया मैन”


मैं पश्चिम अफ्रीकी देश लाइबेरिया में दो वर्ष रहा हूँ. वहां मैं लाइबेरिया यूनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर में पढाया करता था और उस देश की राजधानी मोनरोविया में रहता था. 
 
उस देश में रिवाज़ था कि जब भी पुरुष और महिला किसी रेस्तोरां या बार में खा पी रहे हों, तो बिल पुरुष को ही देना होता था. अगर किसी कारण बिल की पेमेंट महिला को करनी पड़ जाती, तो वह इसमें अपमानित अनुभव करती. सोचती, के यहाँ बैठे बाकी लोग यह देख कर मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे.

कॉलेज में मेरी अफ्रीकन टीचिंग असिस्टेंट, लीयेटा मुझे बताया करती थी की उसका छोटा भाई अभी बेकार है. इसलिए उसके पास पैसे नहीं होते और वह जब अपनी गर्लफ्रेंड के साथ बाहर खा पी रहा होता है, तो बिल नहीं चुका सकता. हालांकि उसकी गर्ल फ्रेंड, जो एक दूकान में सेल्स गर्ल की नौकरी करती थी, बिल चुका सकती थी पर ब्वॉय फ्रेंड के साथ होते हुए उसका बिल चुकाना शर्म की बात होती, इसलिए वह लडकी बाहर चलने से पहले कुछ पैसे लीयेटा के भाई को बिल चुकाने के लिये दे दिया करती थी ताकि वह इस शर्मिंदगी से बच सके.

मेरी एक मेरी ही उम्र की महिला सहयोगी मैल्वीना ओकेच थी. वह होम साइंस पढ़ाया करती थी. वह अमेरिका में पढी थी और अपने पति से अलग हो चुकी थी. वह बहुत ही सुन्दर, मिलनसार और खुश मिजाज़ महिला थी. उसकी अपनी कार थी और उसमें कभी कभी वह मुझको भी घुमा लाया करती थी. घूमने के दौरान हम किसी रेस्तौरां में बैठ कर खा पी भी लिया करते थे.

 मोनरोविया में अपने सहयोगियों के साथ पार्टी करते हुए
मेल्वीना सामने वाली पंक्ति में दूसरे स्थान पर बैठी है.

जब हम दोनों पहली बार एक रेस्तौरां में गए, तो बिल की पेमेंट मैंने ही कर दी. यहाँ मैं एक बात आप मित्रों को बता दूं, कि जब भी भारतीय किसी फौरेन असाइंमेंट पर कहीं विदेश गए होते हैं, तो उनका मुख्य उद्देश्य वहां से पैसा बचा कर लाना ही होता है. इसलिए हम लोग वहां अधिक से अधिक किफायत और कंजूसी से रहते हैं. इस कंजूसी को वहां कोइ बुरा भी नहीं समझता और ना ही एक दूसरे से छुपाया जाता है. बल्कि सभी एक दूसरे से अधिक पैसे बचाने के तरीके भी पूछा करते हैं.

अब आते हैं असली बात पर. जब मैं और मैल्वीना दूसरी बार बाहर रेस्तौरां में गए और बिल आया तो मैंने मैल्वीना की ओर देखा. मेरा इशारा था कि इस बार वो बिल चुकाए. पर शायद वो मेरा अभिप्राय नहीं समझी क्योंकि वहां के कल्चर के मुताबिक़ बिल तो पुरुष को ही चुकाना होता था. अन्त में मैंने उसको कह ही दिया कि इस बार बिल चुकाने की उसकी बारी है. इस पर उसने कहा कि नहीं, बिल मैं ही चुकाऊँ. मैंने कारण पूछा तो वह बोली,Because you are a man”.
इस पर मैंने कहा, “नहीं, मैं “मैन” नहीं हूँ”. तब वह बोली कि तो क्या तुम “वोमन” हो. मैं बोला कि मैं “मैन” नहीं बल्कि “इण्डिया मैन” हूँ. (लाइबेरिया में इन्डियन नहीं बल्कि भारतीयों को “इण्डिया मैन” कहा करते थे. इसी प्रकार घाना के लोगों को “घाना मैन”, चीन के लोगों को “चाइना मैन” और नाइजीरिया के लोगों के “नाइजीरिया मैन” कहते हैं.)


एक मित्र के घर पर चल रही पार्टी में चल रहा नाच गाना
लाइबेरिया के लोग बहुत ही मस्ती भरा जीवन जीते हैं. काश हम भी उन जैसे हो सकते.

इस पर मेल्वीना बोली, “क्या मतलब?”. तब मैंने उसे समझाया की अगर मैं इस यहाँ तरह औरतों के बिल चुकाने लगा तो कंगाल हो जाउंगा और भारत में मेरा परिवार भूखा मरेगा.
मेरी बात मेल्वीना की समझ में आ गयी. वह बोली पर यहाँ जब लोग मुझको (यानी नारी को) बिल देते हुए देखेंगे तो उसके बारे में क्या सोचेंगे. यह तो उसके लिए तो यह शर्म की बात होगी. इस बात का हल खोज कर यह तय हुआ की भविष्य में जब भी हम दोनों कहीं साथ खाएं, तो वहां पर दिखाने भर को उस वक्त बिल की पेमैंट मैं कर दिया करूंगा. बाद में हम दोनों हिसाब कर लिया करेंगे.

उसके बाद जब तक मैं वहां रहा, हम ऐसा ही करते रहे. इससे लोगों की नज़रों में मेल्वीना इज्जत भी बनी रही और मेरे पैसे भी खर्च होने से बच गए. 

कई वर्षों से लाइबेरिया में रह रहे हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी को जब यह बात पता चली तो वे बोले की परमार यहाँ पहला हिन्दुस्तानी है जिसने लाइबेरियन औरत से पैसे खरचवा दिये वरना यहाँ की औरतें चाहे कुछ भी हो जाए पर मर्द के साथ रहते अपने पैसे नहीं खरचतीं.