December 30, 2016

फिर जरनैली ही क्या हुई?



कई बार आप ऐसे व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, जिन्हें आप उम्र भर नहीं भूल पते। मेरे परिचितों में एक ऐसे ही व्यक्ति थे मेजर जनरल वीरेश्वर नाथ। 1968-1969 में मैं कांगड़ा के इंडो जर्मन प्रोजेक्ट में होर्टीकल्चर डेवेलपमेंट औफिसर की पोस्ट पर कार्यरत था। मेरे साथ मेरा एक जर्मन सहयोगी एरिख मिखालोविच भी हुआ करता था। उन दिनों मेरे उम्र 29-30 साल थी। पूरा कांगड़ा जिला हमारा कार्यक्षेत्र था। तब तक ऊना ओर हमीरपुर भी कांगड़ा जिले के ही भाग हुआ करते थे।
       ऊना जाते आते हम नैना पुक्खर, जो ब्यास पुल से भरवाईं की ओर कोई 4-5 किलोमीटर पर स्थित है, से गुजरा करते थे। वहाँ हमको सड़क के किनारे एक बहुत ही अलग तरह का मकान दिखा करता था। बाद में हमें बताया गया की यह मेजर जनरल वीरेश्वर नाथ का मकान (बाहर से यह साधारण “मकान” जैसा ही दिखता था) है।  मुझे काफी हैरानी होती थी की इतना बड़ा फौजी अफसर इस गाँव में कैसे रहने आ गया था। यहाँ यह बताना भी ठीक रहेगा की उस समय की भारतीय सेना में गिने चुने ही मेजर जनरल हुआ करते थे। इस हिसाब से वह उस जमाने में बहुत ही बड़े आदमी थे।

मेजर जनरल वीरेश्वर नाथ 

       जनरल साहब को बाग़बानी का शौक था और वे अधिकतर अपनी बगिया में ही पौधो की गुड़ाई करते मिला करते थे। बागबानी के कारण उनसे हमारा भी परिचय हो गया। फिर हम जब भी उस रास्ते से गुजारते थे, तो उनके पास कुछ समय के रुक लिया करते थे।
       ये साँवले रंग, माध्यम कद और बहुत गठीले बदन के रौबदार व्यक्तित्व के मालिक थे। जब पहली बार हम उनसे मिले मिखालोविच के मुंह से एक दम निकल गया “He looks like a general”.   
       जब हम उस “मकान” जैसे दिखने वाले घर में दाखिल हुए
, तो वहाँ भीतर का नज़ारा ही और था। उस घर में कई कमरे थे।  एक कमरे में उन्होंने अपना दफ्तर बना रखा था जो कि बहुत बड़ा और सभी किस्म के फर्नीचर और दफ्तर की सभी सुविधाओं से परिपूर्ण था। इस दफ्तर की साज सज्जा देख कर मैंने मन ही मन सोचा कि अब यह व्यक्ति इस दफ्तर में क्या करता होगा।
       जनरल के एक पुत्र और पुत्री थे। पुत्र उस समय सेना में केप्टन था। पुत्री, जो शायद बड़ी थी, भारतीय विदेश सेवा में थी और उस समय स्विट्ज़रलैंड पोस्टिड थी। जनरल उस घर में अपनी पत्नी और और कुछ नौकर नौकरानियों के साथ रहा करते थे। जनरल साहब की पत्नी बहुत ही सादी, साधारण और गृहणी किस्म की महिला थी।  वो फौजी अफसर की पत्नी बिलकुल नहीं दिखती थीं।
       जनरल साहिब को गुलाबों का बहुत शौक था।  उनकी बग़िया में कई किसमों के गुलाब थे। जब भी मैं और मिखालोविच पेड़ लेने चंडीगढ़ जा रहे होते, तो वे हमसे गुलाब के कुछ पेड़ लाने को अवश्य कहते। वे बहुत ही सहृदय और मेहमानवाज़ किस्म के इंसान थे। जैसे ही हम उनके घर में दाखिल होते, उनका पहला काम यह होता की वे बियर की एक बोतल और दो गिलास ले कर आ जाते और कहा करते की पहले बियर पीकर तरो ताज़ा हो लो, काम की बात फिर करेंगे।


नैनापुकखर में  मेजर जनरल वीरेश्वर नाथ का घर 

       उनकी एक बात जो मुझे उनमे काफी अलग लगी वो यह कि वो व्हिस्की या रम के दो पैग लेने के बाद ही  झूम जाया करते थे। तीसरे पैग लेने से उनकी पत्नी उनको रोक दिया करती थी।
       मैंने नोट किया था कि उनके घर में 3-5 तक नौकर नौकरानियां हमेशा मौजूद रहा करते थे। जो मुझे उनकी दो व्यक्तियों की गृहस्थी के लिए बहुत ज्यादा लगते थे। मैंने यह भी नोट किया था कि जनरल साहिब के पत्नी काफी मेहनती किस्म की गृहणी थी और अधिकांश काम स्वयं ही करने की कोशिश किया करती थीं।
       एक बार मुझसे रहा नहीं गया और मैने पूछ ही लिया कि घर में आप केवल दो ही व्यक्ति हैं और घर का अधिकतर काम मैडम ही करतीं है, तो फिर इतने नौकरों की क्या जरूरत है।
       इसपर जनरल साहिब ने जो कहा वो मुझे अभी तक नहीं भूलता। वो कहने लगे कि मैं अपने फौज के सेवा काल में एक डिवीज़न का कमांडर रहा हूँ और सैकड़ों आदमियों पर हुकम चलाता रहा हूँ। तो आज अगर जनरल वीरेश्वर नाथ के आवाज़ लगाने पर केवल एक ही आदमी “हाँ जी” कहे, तो फिर जरनैली क्या हुई।
       वो सचमुच ही बहुत शानदार व्यक्तिव के स्वामी थे। उसके बाद कई वर्षों बाद उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनका बेटा मंडी कॉलेज में एनसीसी का अफसर लगा था और वे उसके पास मंडी आए हुए थे। मुझे जब मालूम हुआ तो मैं उनसे मिलने खलियार, जहां उनका बेटा रहता था, गया। हालांकि वे कुछ वृद्ध हो गए थे, पर उनकी आवाज़ में वो “जरनैली” रोब और खनक अब भी पहले जैसा ही था।       

December 28, 2016

परमार, बहुत ही अच्छा देश है तुम्हारा भारत।



सन 1968 और 1969 में मैं कांगड़ा जिले के इंडो जर्मन प्रोजेक्ट में काम करता था। उस समय मेरी उम्र 29-30 साल थी। उस वक्त देश का कुछ ऐसा माहौल था कि लोगों को, विशेष कर नौजवानों को विदेश और विदेशी चीज़ें बहुत ही आकर्षित किया करती थीं। हम सब के दिमाग में यह बात बहुत बुरी तरह समाई हुई थी कि भारत की हरेक चीज़ घटिया है और स्वर्ग तो यूरोप या अमरीका में है। उस समय लगभग हरेक नौजवान का यही सपना था कि जैसे भी हो सके वह विदेश पहुँच जाये।
इंडो जर्मन प्रोजेक्ट में हमारे प्रोजेक्ट लीडर डा॰ ग्विल्डिस थे। वे एक एग्रोनोमिस्ट थे और पिछले कई सालों से भारत में रह रहे थे।  वे अक्सर हम लोगों से कहा करते थे कि तुम्हारा देश बहुत ही अच्छा है। मुझे उनकी बात का कभी भी विश्वास नहीं हुआ। मैं सोचा करता था कि यह जर्मन हमको खुश करने के लिए ऐसा कहता रहता है। भला हमारा उनसे क्या मुक़ाबला

भारत की वह जो बहुत सी अच्छाइयाँ बताया करता था उनमें से एक यह भी थी कि देखो तुम्हारे देश में एक साल में दो मौसम (फसलें उगाने के दो मौसम यानि रबी और खरीफ के मौसम) होते हैं। में अपने मन में सोचा करता था कि इसमें कौन सी बड़ी बात है। सभी जगहों पर दो (सर्दी और गर्मी के) मौसम होते हैं। वह भारत की और भी कितनी बातों का गुणगान किया करता था। मुझे हमेशा लगता था कि यह जर्मन बहुत चालाक आदमी है और ऐसे ही हमारे यहाँ की तारीफ करता रहता है। उस समय तक मुझे विदेश जाने का कोई मौका नहीं मिला था। तब तक मैं भारत में भी दिल्ली से आगे नहीं गया था। 

बाद में मेरे लिए समय बदला और 1980 से मेरे विदेश जाने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक जारी है। इन पिछले 36 वर्षों में मैं बहुत घूमा हूँ और मुझे दुनिया के सभी महाद्वीपों  में जाने का अवसर मिला है। 

मुझे उत्तरी यूरोप में भी कुछ महीने बिताने का अवसर मिला। तब मैंने यह जाना कि मौसम के मामले में वहाँ के लोगों को कितनी मुश्किलें हैं और उनको कितनी मेहनत और खर्चा करना पड़ता है। और जब आपका खर्च ज्यादा हो तो उसे पूरा करने के लिए मजबूरन ज्यादा मेहनत भी करनी पड़ती है। 

उन देशों में, जिसमे उत्तरी अमरीका, कैनेडा आदि भी शामिल हैं, बहुत सर्दी पड़ती है। इसलिए वहाँ केवल रबी के मौसम की ही फसलें उगाई जा सकती हैं। इसका मतलब है उन देशों के वासियों को प्रकृति ने हमारे मुक़ाबले लगभग आधी फसलों के उगाने खाने से वंचित कर रखा है। वहाँ वे लोग सितंबर अक्तूबर के महीनों में अपनी गेहूं या जौ आदि की फसल काटते हैं और फिर ज़मीन को तैयार कर के दुबारा गेहूं बो देते हैं। उसके बाद वहाँ सर्दी और बर्फ पड़ जाती है। अप्रैल में जब सर्दी समाप्त होती है, तब यह बीज उगता है और पौधे बढ्ने शुरू होते हैं। सितंबर तक फसल काटने लायक होती है। हुई न साल की एक फसल। जबकि हमारे भारत के किसान साल में कम से कम दो फसलें और कहीं कहीं तो तीन भी, ले लेते हैं। मतलब हमारे देश की धरती को प्रकृति का दो से तीन गुना पैदा कर सकने का वरदान है जो वहाँ के लोगों को नहीं है।  

जब मैंने ये सब देखा, तो मुझे डा॰ ग्विल्डिस की कही बात बहुत याद आई कि “परमार, बहुत ही अच्छा देश है तुम्हारा भारत”। 

क्या हम इस बात में यूरोप और अमरीकियों के मुक़ाबले में अधिक भाग्यशाली नहीं हैं? हम हैं, बशर्ते हम अपने प्रकृतिप्रदत्त साधनों का समुचित उपयोग करें।


 बाल्सगार्ड, स्वीडन का डिवीज़न ऑफ़ फ्रूट  ब्रीडिंग, जहां मैंने छह महीने काम किया. 

मेरी पत्नी पुष्पा स्वीडन के मेरे एक सहयोगी के परिवार के संग हमारे घर में.

December 17, 2016

WHEN MY MYTH THAT "INDIANS CAN BE SEEN IN ALL THE COUNTRIES", WAS BROKEN



We carry an impression that you reach any place in the world and you will surely to see some Indian.  I have also found it true all the countries (over 30) which I have visited.  However, to my great surprise, I did not meet any Indian during my two weeks stay in Brazil where I had been in 2007.

 Famous covered market of Sao Paulo
               I had gone to Brazil on an invitation from the Tropical Fruit Growers Society.  Mr. Carlos and Mr. Mauro, of the society were accompanying me.   Mr. Carlos used to drive the car. We had started the trip from Sao Paulo.  Then we travelled by road to many small places before reaching Rio de Janeiro.  We used to visit orchards of member fruit growers and have discussions on different topics connected to fruit cultivation, especially on rare fruits.  It was a very interesting experience to visit the Brazilian countryside and meet farming families and to enjoy their generous hospitality. 


 A view of Rio de Janeiro

               Though Brazilian white people are of European (mostly Portuguese origin) yet their life style is has changed and they live quite differently from their European counterparts. Most of them have big farms and they lead a quite luxurious life.

 With Brazilian mango and litchi growers

               At Rio de Janeiro, I took leave from my host Carlos and came to Iguassu to see the famous falls there.  Iguassu Falls are formed by Iguassu River which at that point also forms the border between Brazil and Argentina. You view the falls from both sides.  I reached on the Brazilian side by air from Rio de Janeiro and stayed there for two nights. On third day, I left Brazilian side by bus that takes you to the border at the river bank.  One has to complete the immigration formalities there and then crosse over to Argentina.  Foreigners have to change buses at the border as it takes some time in immigration formalities and the bus cannot wait that long.  So, one can travel by the next bus without buying another ticket.

 At Iguassu Falls - A place one must see before he dies

               Let me write a few words about Iguassu Falls.  This is a very great place to visit and the view of falls from Brazil as well as from Argentina side, is just mesmerizing.  This is a place which every one fond of travelling must visit during his life time.

 Iguassu town on Brazilian side

               I was in this town, also called Iguassu, for two nights.  From here I took a flight to Buenos Aires, the capital city of Argentina.  Buenos Aires is also a great place to visit with so many unique things to see and experience.  I found Buenos Aires much cheaper and affordable than Rio de Janeiro.  I took my return flight to Delhi from Buenos Aires.   

 
 
A street of Bueos Aires, Argentina

               The total duration of my stay in Brazil and Argentina was 20 days.  Can you believe that during these 20 days, even after visiting so many places and meeting so many people, I DID NOT SEE ANY INDIAN except one lady dressed in shalwar kameez in Florida, the popular shopping and tourist street in Buenos Aires. I first took her to be a Pakistani but when I talked to her, she was from Odissa and turned out to be the wife of Indian Ambassador in Argentina.

In a small restaurant
               Through out my stay in these countries, I kept wondering how this area remained untouched by my enterprising countrymen. So my myth, that Indians can be seen in every part of the world did not turn out to be true in this part of the world.  


December 13, 2016

UNIVERSITY PROFESSORS IN JAPAN START THEIR DAY BY CLEANING THEIR OFFICE



I was invited to Japan by Japanese Society for the Promotion of Science as a Senior Fellow to lecture on Himalayan wild fruits at different universities and research stations in Japan.  At that time I was working as Horticulturist the University of Horticulture & Forestry, Nauni, Solan. It was in the year 1990 and the duration of the fellowship was seven weeks.  My host professor was Prof Hiroshi Yamamura of the Shimane University, Matsue.  According to the programme, I was to report to Prof. Yamamura at Matsue start work from that place in collaboration with Prof. Yamamura.

               According to the programme, I was to stay at Matsue during the first four weeks.  From here, both of us used visit different places for lecture and discussions with the local scientists.  During the last three weeks, I was to travel independently.

               So stayed at Matsue like a faculty member.  The horticulture department there was not very big.  It had two professors and one associate professor.  There was separate block for the Faculty of Agriculture and various Departments were housed in that.  There were about ten undergraduate students and only one student, a girl from China, doing M.Sc. in Horticulture.  The teaching was both in Japanese and English.

               The working hours were from 9.30 to 4.30.  Everyone was quite punctual and reached office five minutes before time.  Our department was located at the second floor.  So we used to meet at the lift door.  There was only one key for the main door and the last person leaving office in the evening would conceal it at a place above the door.  So when people would come in the morning the first person will take it and open the door. 

               The work, which was a new experience for me would start after that.  All the faculty members will put their brief cases on their respective tables and pick up the brooms and start sweeping the floor, collect the garbage and put it in the big garbage bin kept especially for this purpose on every floor.  Then they will pick up mops and mop the floor, dust their tables and other corners of the rooms.  The whole affair lasted for about ten minutes.  
  
               After that the second work would start.  All the professors boiled water and filled their thermos flasks with hot water.  This was for their daily tea.  The Japanese drink a lot of tea.  In fact they continue doing it the whole day.  Their tea was, however, quite different than what we take here.  It was some green powder of tea.  They usually put a small quantity in the thermos itself and the poured water over it. No sugar or mild was added to it.  This brew had a light yellowish green colour and very mild taste of tea.  A half cup of this tea was the first thing to be offered to any visitor.  This was the first formality of courtesy at every place in Japan.

               There were no sweepers as we have in Indian offices.  The cleaning work of corridors and other common areas was outsourced.  So twice a week, a group of cleaners will come like raiders in a vehicle; clean every place and will move to their next destination.  This operation really used to be very fast like a raid.

               But that did not mean that their buildings were not clean.  Japanese are quite fussy people so far as the cleanliness is concerned.  The building used to quite clean from inside as well as from outside.


My host professors and students at Shimane University, Matsue, Japan