July 27, 2017

कितनी लाभदायक है यह पौधा रोपण समारोहों की वार्षिक रस्म अदायगी



बरसात का नौसम शुरू हो गया है. सदापर्णी किस्म के पौधों को लगाने का यह सबसे उपयुक्त समय होता है. इसलिए नए पेड़ रोपने का काम शुरू हो गया है.

       इसके साथ ही विभिन्न सरकारी विभाग और कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं, जो अपनी ओर से पौधारोपण कार्य करवाती हैं, भी सक्रिय हो गयी हैं. आये दिन हम अखबारों में विभिन्न सरकारी विभाग, जैसे वन विभाग, आयुष विभाग और बहुत सी कतिपय समाजसेवी संस्थाओं द्वारा आयोजित किये गए पौधारोपण समारोहों के बारे में भी पढ़ते रहते हैं. पूरे देश में ऐसे आयोजनों की संख्या लाखों में हो जाती है. और यह कार्यक्रम देश में आधी सदी से अधिक समय से चल रहा है. सरकारी कार्यक्रम को वन महोत्सव का नाम दिया गया है और इस को अधिकांश प्रान्तों में वन विभाग आयोजित करता है. 

वनमहोत्सव को प्रतिवर्ष देश के हरेक जिले में एक समारोह की ही तरह मनाया जाता है और इस काम पर काफी खर्च भी हो जाता है क्योंकि समारोह में एक “मुख्यातिथि” होता है. मुख्यातिथि के स्टेटस के हिसाब से पब्लिक के लोग होते हैं, सरकारी कर्मचारी होते हैं, शामियाने आदि लगाए जाते हैं और भोजन नहीं तो समुचित चाय पानी के व्यवस्था तो होती ही है. पेड़ लगाने के बाद भाषण होते हैं, खाना पीना होता है और इस प्रकार समारोह समाप्त हो जाता है. अगले दिन के अखबारों में चित्रों सहित समारोह की खबर भी छप जाती है.

पर क्या आप जानते हैं उसके बाद क्या होता है. उसके बाद उस स्थान पर ना तो मुख्य अतिथि, ना पब्लिक के वो लोग व सरकारी अधिकारी जो वहां समारोह में उपस्थित थे और जिन्होंने एक दो पेड़ लगाने का शुभ काम भी किया था, दोबारा जाते हैं. वन विभाग का कोइ मजदूर के दर्जे का कर्मचारी कभी कभार चक्कर मार जाता हो. नये लगे पेड़ों को शुरू में अतिरिक्त देखभाल की जरूरत होती है. उनको जंगली या आवारा जानवरों से बचाना पड़ता है. उनकी, खासकर बरसात के मौसम में १५-२० दिन में गुडाई आदि भी करनी पड़ती हैं ताकि अनावश्यक खर पतवार उनका विकास ना रोक दें. बरसात के मौसम के बाद कम से कम एक साल तक उनकी सिंचाई भी करनी पड़ती है. तभी पेड़ ज़िंदा रह सकते हैं. पर ये सब कोइ नहीं करता. पौधारोपण समारोह के बाद सब उन पेड़ों को भूल जाते हैं. परिणाम यह होता है, कि इन समारोहों में लगे अधिकांश पेड़ महीने दो महीने में ही मर जाते हैं. 

मैं मंडी में रोटरी क्लब से जुड़ा हूँ. रोटरी क्लब भी कई बार मंडी मंडी के और आसपास ऐसे पौधारोपण समारोह आयोजित करता रहा है पर परिणाम वही हुआ है जो ऐसे समारोहों का हमेशा से होता आया है यानी आज मुश्किल से कोइ पेड़ बचा हुआ दिखता है.

इस तरह के पौधारोपण समारोहों का क्या लाभ है. क्या यह धन की बर्बादी नहीं है. पूरे भारतवर्ष में पिछले 6-7 दशकों से वन महोत्सव का कार्यक्रम चल रहा है. जिसे अंतर्गत आज तक अरबों खरबों पौधे लगाए जा चुके हैं. पर वे पौधे कहाँ हैं. इनके हिसाब से तो आज पूरे देश में पेड़ ही पेड़ होने चाहिए थे. पर कहाँ हैं वो सब पेड़.
आश्चर्य की बात तो यह है कि अब इस बात को सरकार और जनता में लगभग सभी सभी जान गए है कि इन कार्यक्रमों का अब तक तो कोइ लाभ नहीं हुआ है. शायद कभी हो भी ना जब तक कि इनके कार्यान्वयन में पूर्ण बदलाव किया जाए. पर फिर भी इन कार्यक्रमों की रस्म अदायगी जारी है. 

पिछले दिनों हिमाचल में इसी तरह का एक और तुगलकी कार्यक्रम चला. पूरे प्रदेश लोगों को मुफ्त “मैडीसनल प्लांट्स” बांटे गए. वैसे तो मैडीसनल प्लांट् की कोइ पक्की परिभाषा नहीं है, क्योंकि पौधों के ऊपर लिखी गयी भारतीय पुस्तकों में लगभग प्रत्येक पौधे का कोइ ना कोइ औषधीय गुण बताया गया है, फिर भी हम उस पौधे को आधिकारिक रूप से मैडीसनल प्लांट् कह सकते हैं जो उद्योग में दवा बनाने के काम आता हो. पर इस कार्यक्रम के अंतर्गत भी पौधों का चुनाव और बटवारा कोइ सुनियोजित ढंग से नहीं किया गया. मुफ्त में पेड़ मिल रहे थे, सो जिसके हाथ जो लगा उसने वही ले लिया. बाद में लगाया या नहीं, वो पेड़ बचे या मर गए, ये किसी को मालूम नहीं. ऐसे कार्यक्रम का कोइ लाभ हो सकता था.

नए पेड लगने चाहिए. बल्कि इस काम की देश में आज बहुत आवश्यकता है. पर यह काम सुनियोजित ढंग से विशेषज्ञों की राय के अनुसार होना चाहिए. किस स्थान पर किस किस्म के पौधे की आवश्यकता है, यह विशेषज्ञों द्वारा तय किया जाना चाहिए और उन जातियों के पौधे पहले नर्सरियों में तैयार किये जाने चाहिए. यह नहीं कि जुलाई के महीने में जो भी पेड़ कहीं से मिल गए, वही रोप दिए.

सबसे जरूरी बात जो सबके ध्यान में रहनी चाहिए वह यह है कि पेड़ लगाने का काम पेड़ को रोपने भर का नहीं है. असली काम तो उसके बाद शुरू होता है, यानी उस लगाये गए पेड़ को जिन्दा रखना. इस बात का अंदाजा बहुत कम लोगों को होता है. पौधारोपण कार्यक्रमों के आयोजक इस बात को अवश्य सुनिश्चित करें कि लगाने के बाद इन पेड़ों की देखभाल कैसे होगी. नए पेड़ की  कम से कम दो साल तक पूरी देख भाल करनी पड़ती है तभी वह जिन्दा रहेगा. इस काम के लिए मानव तथा अन्य संबद्ध संसाधनों की आवश्यकता होती है जिसकी व्यवस्था समुचित कार्यक्रम शुरू किये जाने से पहले हो जानी चाहिए.     

July 25, 2017

मंडी रियासत का सरकारी जल्लाद



कुछ दिन पहले मैंने शशि वारियर द्वारा लिखित अंगरेजी पुस्तक “THE HANGMAN’S JOURNAL” पढी. यह पुस्तक जनार्दन पिल्लै के बारे में है जो तीस साल तक पहले त्रावणकोर रियासत और बाद में केरल राज्य में मृत्यदंड प्राप्त कैदियों को फांसी देने का काम करता रहा. यह उसका पुश्तैनी काम था.

       लेखक के अनुसार यह पुस्तक जनार्दन के स्वलिखित नोट्स पर आधारित है. मेरी नज़र में यह अपनी किस्म की पहली पुस्तक है. हालाँकि इसकी भाषा थोड़ी उबाऊ है, पर फिर भी यह पुस्तक काफी दिलचस्प है और फांसी की सज़ा, सज़ा पाने वाले अपराधी और फांसी देने वाले जल्लाद के बारे में बहुत जानकारी देती है और पठनीय है.


शशि वारियर की वह पुस्तक जिसे पढ़ कर मुझे यह लेख
लिखने की प्रेरणा मिली.
       यह पुस्तक पढने के बाद मुझे वह व्यक्ति याद आ गया जो रियासत कालीन मंडी में अभियुक्तों को फांसी पर टांगा करता था. फांसी देने का काम मंडी में आज की जेल रोड पर, जेल से आगे सरकारी कॉलोनी के आखिर में जो नाला है, जिसको आज “ब्यून्सू का नाल” कहते हैं, उसके किनारे किया जाता था. कहते हैं कि वहा पर एक मरिह्न्नू का बड़ा सा पेड़ होता था जिसकी एक टहनी से अपराधी को लटका कर फांसी दे दी जाती थी. यह काम खुले में हुआ करता था. इसके साथ ही हमारे पौने दो बीघा जमीन थी जो मेरे पिताजी ने इस विचार से ली थी कि कभी मंडी में घर बना लेंगे. इस जमीन पर आज P W D कालोनी और शिव मंदिर है.

       मेरे पिताजी मंडी राजा के निजी स्टाफ में थे और इसलिए हम पैलेस के पास बने स्टाफ क्वार्टरों में रहते थे. बाद में जब हिमाचल बना तो हम को वहां से आना पडा और जेल रोड के पुराने सरकारी मकान में रहने आ गये. यह 1948 की बात है. तब मेरे पिताजी ने इस “ब्यून्सू के नाल” वाली जमीन पर अपना घर बनाने का इरादा किया और इसके लिए पत्थर आदि भी मंगवा कर रखा लिए. पर सब लोग मेरे पिताजी को कहने लगे कि इस जगह पर घर बनाना ठीक नहीं रहेगा क्योंकि यहाँ फांसी दिया करते थे इसलिए यह जगह जरूर भुतही होगी. इस बात का मेरे पिताजी पर इतना असर हुआ कि उनहोंने उस जगह पर घर बनाने का विचार त्याग दिया और जमीन का नया प्लाट, जहां हम अब रहते हैं, खरीद कर रहने के लिए घर बनवाया.


मंडी की टारना पहाडी की वह चट्टान
जहां वह जल्लाद रहा करता था.

       अब आते हैं मुख्य बात पर. जब हम पैलेस से जेल रोड रहने आये थे, वहां कई बार एक सफ़ेद कपड़ों वाला साधू किस्म का बुज़ुर्ग कुछ मांगने आ जाया करता था. मैं उसे “साधू” न कह कर “साधू किस्म का” इस लिए कह रहा हूँ कि वह भगवे कपड़ों के बदले सफ़ेद धोती बनयान या कुरते में होता था. और एक बार राम राम कह कर अपने आने के बारे में सूचित कर आँगन के एक कोने में बैठ जाता था. उसके हाथ में एक अलुमिनियम का कटोरानुमा बर्तन होता था जो उसका भिक्षा पात्र था. जिसको जो देना होता था उसमे डाल देता. वह चुपचाप लेकर चला जाता था. वह किसी कोइ बात नहीं करता था. इशारों से शुक्रिया अदा कर देता.

       कुछ दिनों बाद मेरे दादाजी, जो अधिकतर हमारे गाँव के घर में रहा करते थे, मंडी आये. उनकी उम्र काफी थी और वो भी पहले राजा के निजी स्टाफ में काम कर चुके थे. एक दिन जब मेरे दादाजी बाहर बरामदे में बैठे हुक्का पी रहे थे, तब वह मांगने वाला व्यक्ति आया. उसने जब मेरे दादाजी को देखा तो उनको मियां लोगों का पारंपरिक अभिवादन “जयदेवा” कहा. दादाजी उसको देख कर प्रसन्न हुए और उसे बैठने को कहा. वह कुछ दूर जमीन पर बैठ गया. दादाजी ने उसका हाल चाल पूछा और और काफी देर तक दोनों बातें करते रहे. फिर दादाजी ने मेरी माताजी से उसको कुछ खाने को देने को कहा. माताजी ने शाम का बना बटूहरू थोड़ी चीनी और घी लगा के दे दिया. उन दिनों आने वालों की ऐसे ही आव भगत की जाती थी. 

       उसके जाने के बाद दादाजी ने हमें बताया कि वो रियासत का सरकारी जल्लाद था और अपराधियों को फांसी देने का काम करता था. वह वाल्मीकि समुदाय से था और अब सन्यासी हो गया था. शायद उसके मन में अपने काम के कारण कोइ अपराध या पश्चाताप की भावना आ गयी हो जिसे उसने संन्यास ले लिया हो. मुझे उसका नाम याद नहीं है. पर वह जेल रोड के सामने टारना पहाडी पर जो एक बड़ी सी चट्टान है और जिस पर अब हनुमान आदि की मूर्तिया भी बनी हैं, वहां एक खोह में रहा करता था. उसके परिवार में और कौन कौन थे, यह मैंने नहीं पूछा. असल में मैं उस समय 8-9 साल का बालक था और इन बातों को नहीं जानता था.

       मेरे ख्याल में वह व्यक्ति 1951 या 52 तक जीवित रहा.