August 24, 2020

एक अफ्रीकन पकवान जो मुझसे खाया नहीं गया

 

भोजन के मामले में मैं विश्ववादी (Cosmoplitan) रहा हूँ और सभी किस्म का भोजन खा लेता हूँ। बल्कि मुझे विभिन्न देशों के स्थानीय भोजन आजमाने का शौक है। मैं जब भी विदेश में होता था, कभी भारतीय रेस्टोरां तलाश नहीं करता था, हमेशा ऐसे रेस्टोरां जाया करता था जहां विशुद्ध स्थानीय भोजन मिलता हो और प्रतिदिन नई डिश चखा करता था। इस मामले में जापान में बहुत सुविधा थी। वहाँ  रेस्टोरां या स्टूडेंट कैफेटेरियाओं में एक शो केस में उस दिन बने पकवान सजाये हुए होते थे, उनका जापानी भाषा में नाम और साथ एक विशेष नंबर भी दिया होता था। नंबर कंप्यूटर से हिसाब रखने की सुविधा के लिए दिया गया होता था। साथ में प्रत्येक डिश का मूल्य भी लिखा होता था। आप वहाँ से अपनी पसंद की डिश चुन कर उनके नंबर अंदर काउंटर पर कैशियर को बता देते और वह पैसे लेकर आपको कूपन दे देता था जिसको आप आगे जाकर फूड काउंटर पर दे देते और आपको एक ट्रे में वह सब मिल जाता था। मैं जितने दिन वहाँ रहा हर रोज नया मीनू चुना करता था। 

जापानी लोग सी फूड का बहुत प्रयोग करते हैं। वहाँ मैंने औक्टोपस भी चखा। वहाँ मछली की एक ऐसी जाति भी होती है, जिसे वे कच्चा खाते  हैं, सलाद की तरह और शायद यह काफी महंगी होती है क्योंकि इसे मैंने विशेष आयोजनो पर ही परोसे जाता देखा।

       अब आते हैं असली बात पर। जैसा कि मैं अकसर बताता रहता हूँ
, मैंने दो वर्ष पश्चिमी अफ्रीका के देश लाइबेरिया में भी बिताए हैं। अफ्रीका भारत से बिलकुल भिन्न है। वहाँ के लोग अलग हैं,रस्मों रिवाज अलग हैं, सभ्यता अलग है और खान पान भी हमसे बिलकुल अलग है। यहाँ आपको लगता है कि आप सचमुच ही विदेश में हैं।


पश्चिमी अफ्रीका की स्नेल, जिसे वे लोग खाते हैं 

       एक दिन मैं अपने एक अफ्रीकी मित्र के घर पर गया। यहाँ मैं एक बात यह भी बताना चाहता हूँ कि लाइबेरियन लोग बहुत ही हौस्पिटेबल होते हैं और उन में बाँट कर खाने का कल्चर है। अगर उनके यहाँ खाना खाते वक्त कोई आ जाये तो वे इसे शुभ मानते हैं। मैंने सुना है कि लगभग सारे पश्चिमी अफ्रीका में यही रिवाज है। मैं जब अपने मित्र के यहाँ पहुंचा तो वे खाना खाने की तैयारी कर रहे थे। क्योंकि मैं वहाँ अकेला रहता था और मैंने भारत में कभी खाना नहीं पकाया था, इसलिए मेरा खाना जुगाड़ ही हुआ करता था। इसलिए मैं बहुत बार अपने अफ्रीकन मित्रों के यहाँ जान बूझ कर भी खाने के समय पहुंचा करता था।

       मेरे मित्र की पत्नी मुझे देख कर बहुत प्रसन्न हुई और बोली कि आप उचित समय पर ही नहीं बल्कि उचित दिन पर आए हैं। आज मैं आपको एक बहुत ही विशेष पकवान खिलाऊंगी। मैंने पूछा कि आज ऐसी क्या विशेष चीज़ बनी हैं। इस पर वह बोली, आज हमारे यहाँ स्नेल (snail) बनी हैं। मैं सुन कर सन्न रह गया। मुझे तब तक यह पता नहीं था कि अफ्रीका में या संसार में अन्य कहीं स्नेल भी खाई जाती हैं। मुझे तुरंत बरसात के मौसम में हमारे यहाँ पाई जाने वाले स्नेलों यानि फीहलों की याद आ गई, जिनको देख कर हमे लोगों का मन घृणा से भर जाता है। मेरे मुंह से एक दम इंकार निकल गया और मैंने कहा कि नहीं मैं स्नेल नहीं खा सकूँगा।


हमारे यहाँ पायी जाने वाली स्नेल, जिसे स्थानीय भाषा में फीहल कहते हैं 

       वे लोग बहुत हैरान हुए। क्योंकि वे लोग जानते थे कि मैं अफ्रीकन खानों का शौकीन था और नई नई चीज़ें खाने की ताक में रहता था।  अब मैं इनको अपने मन की स्थिति कैसे समझाता। मेरे मित्र की पत्नी ने मुझे समझाया कि स्नेल तो वहाँ का बहुत विशेष और महंगा भोजन है क्योकि स्नेल बाज़ार में रोज़ नहीं मिला करतीं। संयोगवश साल में एकाध बार मिल जाती हैं। और आज तो यह बहुत ही सुखद संयोग है कि हमारे घर में स्नेल पकी हैं और उसी दिन खाने के समय हमारे घर मेहमान भी आ गया। पर मुझे अपने यहाँ की फीहालों की याद आ रही थी और उनका ध्यान आने से उबकाई आनी शुरू हो गई थी। व लोग मेरी इंकार पर बहुत हैरान थे और बार बार मुझे समझा रहे थे। फिर मेरे मित्र की पत्नी रसोई में गई और पतीली उठा कर मुझे दिखाने लगी। वैसे तो उसमें कोई ऐसी बात नहीं थी, ऐसा लग रहा था जैसे अपने यहाँ बनी कलेजी के टुकड़े हों, पर मेरे दिमाग़ पर वह फीहलों की तस्वीर ऐसी बुरी तरह छा गई थी, कि मैं हाँ कर ही नहीं सका, हालांकि यह एक तरह मेरी धृष्टता ही थी और मुझे इसका अफसोस भी हो रहा था।

       तो यह थी वो डिश जिसे मैं उदार सर्वभक्षी विश्ववादी न खा सका।

       इसके अतिरिक्त मैं एक और डिश जो मैं नहीं खा सका
, वह थी मेंढक, पर वो किस्सा फिर कभी।                

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