जब भी चुनाव में राजनैतिक
दलों को अप्रत्याशित हार होती है, तो इनको दिमाग में पहली बात यही आती है की जरूर
विरोधियों ने कोइ हेराफेरी की है. वरना वो तो कभी हार ही नहीं सकते थे. सारी
परिस्थितियाँ उनके अनुकूल थीं.
मायावती और केजरीवाल कह रहे
हैं कि निस्संदेह वोटिंग मशीनों से कुछ ऐसी छेड़छाड़ की गयी है जिससे सारे वोट भाजपा
को पड़ते रहे. केजरीवाल ने इलेक्शन कमीशन से कहा है कि दिल्ली के आगामी चुनावों में
वोटिंग मशीनों से नहीं बैलट पेपरों से चुनाव कराये जाएँ. पर एक जमाने में हारे हुए
नेताओं द्वारा बैलट पेपरों पर भी शक किया जा चुका है.
मुझे साल तो ठीक से याद
नहीं है पर शायद साठ के दशक की बात है. उस समय इंदिरा गांधी की कांग्रेस की ऐसी ही
स्वीपिंग विक्टरी हुई थी. भारतीय जनसंघ बहुत ही बुरी तरह हारा था. उस समय जनसंघ के
प्रेजिडेंट प्रो. बलराज मधोक थे, जिनका अभी हाल ही में 96 वर्ष की आयु में देहांत हुआ है. यह हार उन लोगों के लिए इतनी अप्रत्याशित थी कि उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था
कि जनता ने उनको कांग्रेस के मुकाबले में इतनी बुरी तरह अस्वीकार कैसे कर दिया.
स्व. प्रोफ़ेसर बलराज मधोक
हार के कारणों का विश्लेषण
करने के बाद एक यह भी तर्क दिया गया था कि इंदिरा गांधी ने बैलट पेपर रूस में छपवाए
थे. इन बैलट पेपरों के कागजों में कोइ ऐसा जादूई कैमिकल लगा था कि मतदाता द्वारा लगाई कई मोहर का निशान कुछ देर
में अपने आप मिट जाता था और कांग्रेस के चुनाव निशान पर प्रगट हो जाता.
पुराने लोगों को यह किस्सा
जरूर याद होगा. इसका खूब प्रचलन हुआ था और जनसंघ वालों का, खासकर प्रो. मधोक का,
इस बात पर बहुत मज़ाक उड़ा था.
सो इस लिए इन हारे हुए दलों
का यह सोचना कि वे वोटिंग मशीनों की गड़बड़ी के कारण हार गए वर्ना जनता ने तो उनें
ही जिताया था, कोइ नयी बात नहीं है. खिसियानी बिल्लियाँ सदा से ही खम्बे नोचती
आयीं हैं.
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