मास्को कभी मेरा
ड्रीम शहर हुआ करता था। यह 1960-61 की बात है। तब मेरी उम्र 21-22 साल थी और मैं M. Sc. का छात्र था। मेरे पिता जी उन दिनो
बिलासपुर में कार्यरत थे और पुराने बिलासपुर शहर में में रहा करते थे। हमारा मकान
सांढू के मैदान में बस स्टैंड के साथ था। नया बिलासपुर अभी बनना ही शुरू हुआ था।
मैं जब भी मुझे समय मिलता, बिलासपुर आ जाया करता था। हमारे क्वार्टर
के नजदीक ही मियां गजेन्द्र सिंह की कोठी थी जिसमें स्थानीय कम्युनिस्टों का
जमावड़ा लगा रहता था। वहाँ हिमाचल में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक नेता प्रोफेसर
कामेश्वर पंडित भी आते रहते थे। मेरा भी उन लोगों में उठना बैठना शुरू हो गया था
जिसके परिणाम स्वरूप मुझ इस विचारधारा का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया। पास में ही
डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी भी थी। वहाँ कम्यूनिज़्म पर यशपाल तथा कुछ अन्य लेखकों की
पुस्तकें भी पढ़ीं। इस सब का नतीजा यह हुआ कि मैं अपनी ओर से पक्का कम्युनिस्ट बन
गया। जब शिमला जाता, तो फे लॉज में ट्रांसपोर्ट वर्करों की
यूनियन में रुका करता। रूस और मास्को मेरे लिए तीर्थ स्थान जैसे हो गए थे और वहाँ
की यात्रा करना मेरे बहुत से सपनों में एक हो गया था।
यह सिलसिला कुछ वर्षों तक चला। पर बाद में उम्र और अनुभव के साथ विचार बदलते गए। मुझे दो सप्ताह चेकोस्लोवाकिया, जब यहाँ समाजवाद था, बिताने का भी अवसर मिला और वहाँ के हालात भी देखे। इस तरह धीरे धीरे कम्यूनिज़्म या समाजवाद के बारे में मेरे विचार बदलते गए।
1989 में मुझे मास्को जाने का अवसर मिला। यह वह समय था जब वहाँ कम्युनिज़्म था। रूस को तब विश्व के सबसे अधिक शक्तिशाली और समृद्ध देशों में गिना जाता था। पर मैंने जो वहाँ देखा, उससे मुझे वहाँ की स्थिति बहुत ही अलग और निराशा जनक नजर आई।
यह सिलसिला कुछ वर्षों तक चला। पर बाद में उम्र और अनुभव के साथ विचार बदलते गए। मुझे दो सप्ताह चेकोस्लोवाकिया, जब यहाँ समाजवाद था, बिताने का भी अवसर मिला और वहाँ के हालात भी देखे। इस तरह धीरे धीरे कम्यूनिज़्म या समाजवाद के बारे में मेरे विचार बदलते गए।
1989 में मुझे मास्को जाने का अवसर मिला। यह वह समय था जब वहाँ कम्युनिज़्म था। रूस को तब विश्व के सबसे अधिक शक्तिशाली और समृद्ध देशों में गिना जाता था। पर मैंने जो वहाँ देखा, उससे मुझे वहाँ की स्थिति बहुत ही अलग और निराशा जनक नजर आई।
मास्को एयरपोर्ट के रेस्तरां में मैं और मेरी पत्नी पुष्पा
असली बात शुरू करने से पहले मैं यहाँ ये भी बता दूँ कि मैं मास्को कैसे पहुंचा। इस बात का बहुतों को शायद अंदाज भी न हो कि रूस की आर्थिक स्थिती बिगड़ चुकी थी और उनकी करेंसी रूबल का वास्तविक मूल्य बहुत गिर चुका था पर वहाँ की सरकार इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करती थी। रूस की अपनी एयरलाइन ऐरोफ़्लोट है। इनके जहाज़ लगभग सारी दुनिया के लिए चलते हैं। अगर आपको ऐरोफ़्लोट का टिकट लेना होता, और अगर आप इसके लिए पैसे अमरीकन डॉलरों में देते, तो आपको 10,000 रुपए का टिकट 3000 रुपये तक में मिल जाता। यह मैं उस समय यानि 1988 की बात कर रहा हूँ। टिकट पर किराया पूरा लिखा होता। ऐरोफ़्लोट वालों से मोल भाव भी करना पड़ता था।
मुझे स्वीडन जाना था। मेरे पत्नी भी मेरे साथ थी। क्योंकि मैं स्वीडिश यूनिवर्सिटी के बुलावे पर जा रहा था, इसलिए मेरा किराया उनको देना था पर मेरे पत्नी का किराया मुझे वहन करना था। इसलिए मैंने ऐरोफ़्लोट से जाने का निर्णय लिया। ऐरोफ़्लोट की सभी उड़ाने मास्को होकर जाती हैं। इसलिए हमें मास्को होकर जाना और वापिस आना था। हमने वापसी पर मास्को घूमने का निर्णय लिया और आते हुए वहाँ का स्टॉप ओवर ले लिया जिसके लिए हमें कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा। हम इससे पहले भी कई बार सफर कर चुके थे, दो बार ऐरोफ़्लोट में भी ट्रैवल कर चुके थे, इसलिए हमें बचत के ऐसे तरीकों खूब की जानकारी थी।
मास्को के प्रसिद्ध रेड स्क्वेयर में मैं
पीछे जो यह लंबी लाइन दिख रही है, ये वे लोग हैं जो वहाँ ही स्थित लेनिन की
समाधि में रखे उनके मृत शरीर के दर्शन करना चाहते थे
अब शुरू करते हैं मास्को का हाल। जैसे ही हम जहाज़ से
उतरे, कस्टम वालों ने हमें घेर
लिया। हम अपने साथ एक VCR ला रहे थे। VCR भारत में उन दिनों एक नया
शौक और स्टेटस सिंबल था। हम दोनों को VCR का कोई विशेष शौक नहीं था, पर सोलन में जब भी मित्र और परिचित हमारे यहाँ आते
तो VCR के बारे में पूछते। जब हम
उनको बताते कि हमारे पास VCR नहीं है तो वे हमारा मज़ाक उड़ाते कि आप कैसे आदमी हो, इतना बाहर आते जाते रहते
हो और घर में VCR तक नहीं है। सो इस बार
हमने खरीद ही लिया क्योंकि हमें लगा कि भारत में इसके बिना गति नहीं है। कस्टम
वालों ने कहा कि इसे आप अपने साथ बाहर नहीं ले जा सकते। अगर ले जाएँगे तो आपको इसकी
कस्टम ड्यूटी देनी पड़ेगी। उन्होंने कहा कि हम यह VCR उनके गोदाम में जमा करा दें और वापसी पर रसीद दिखा कर
ले लें। हमें उन कर्मचारियों का व्यवहार
बहुत अजीब सा लग रहा था। वे दबी ज़ुबान में डॉलर डॉलर भी बोल रहे थे। उस समय मास्को
अङ्ग्रेज़ी बहुत कम समझी जाती थी, इसलिए बात करने में भी मुश्किल हो रही थी। खैर हमने VCR वहाँ जमा करा दिया और रसीद ले ली जो रूसी भाषा में थी
और हमारी समझ से बाहर थी। हमें ये सारे लोग बहुत लालची लग रहे थे।
रेड स्क्वेयर पर मैं और पुष्पा
वहाँ हवाई अड्डे पर और भी लोग
हमारे आगे डॉलर डॉलर गुनगुना रहे थे। यह बात कुछ देर बाद हमारी समझ में आई। दर असल
वहाँ डॉलर का ब्लैक हो रहा था और ये लोग हमसे पूछ रहे थे कि क्या हमें अपने डॉलर
देने हैं? उस समय की स्थिति यह थी कि रूसी सरकार ने
एक रूबल का सरकारी मूल्य 1.5 डॉलर रखा था। जबकि वास्तविक स्थिति कुछ और ही थी।
मार्केट में अगर आपको एक डॉलर लेना होता तो 11-12 रूबल देने पड़ते। ये लोग विदेशी
आगंतुकों से 5-6 रूबल प्रति डॉलर, या इस से भी अधिक देकर डॉलर खरीद लेते और
फिर आगे अधिक दाम पर बेच देते। हम जब तक वहाँ रहे, लोगों को डॉलर के लिए पूछते ही देखा।
मुझे स्वीडन से चलते समय हमारे
डाइरेक्टर ने इस बारे में सावधान कर दिया था और कहा था कि हम किसी से भी इस प्रकार
का सौदा न करें क्योंकि बहुत बार इन डॉलर खरीदने वालों में पुलिस के आदमी भी होते
हैं जो आपको बाद बहुत तंग करेंगे और भारी रिश्वत की मांग करेंगे। इसलिए यह लालच
छोड़ कर हमने अपने डॉलर सरकारी रेट यानि डेढ़ डॉलर प्रति रूबल के हिसाब से ही
बदलवाए। हमारे साथ एक बंगला देशी विद्यार्थी भी सफर कर रहा था। वह अपने डॉलर 11
रूबल प्रति डॉलर के हिसाब से बेच आया। इस कारण हमने मास्को में बहुत कम खर्च
किया। बस दो तीन सबसे सस्ते से स्मृति चिन्ह लेकर मन मार लिया।
जैसे ही हम अपने होटल में पहुंचे वहाँ डॉलर मांगने वालों के अतिरिक्त कुछ रूसी महिलाएं भी आ गईं और मेरी पत्नी को पूछने लगीं कि उसके पास कोई लिपस्टिक या अन्य कौस्मेटिक तो बिकाऊ नहीं हैं? ऐसा लगा वहाँ इन चीजों का अभाव था। वैसे हमारे देश में भी एक समय ऐसा ही था। लोग इंपोर्टिड चीजों के दीवाने हुआ करते थे।
उन दिनों जनवरी का महीना था और मास्को में बहुत ठंड थी। वे लोग स्नो कटर मशीनों से बर्फ हटा कर एक तरफ कर देते हैं। ये बर्फ के टुकड़े ऐसे लगते थे जैसे बड़ी बड़ी सफ़ेद पत्थर की चट्टानें, जैसी कांगड़े की खड्डों में होती हैं, हों। बाहर बाज़ार में खाने पीने की चीज़ें काफी सस्ती थीं। हाँ जिस होटल में हम रुके थे, वहाँ सब कुछ बहुत महंगा था।
अब सुनिए वापसी में हमारे साथ क्या बीती। हम एयर पोर्ट पर ठीक समय पर पहुँच गए थे। चैक इन करने के बाद मैं अपना VCR लेने कस्टम वालों के पास गया। पर वो तो जैसे अजनबी बन गए और मुझसे बहुत रूखेपन से पेश आने लगे। वे सभी रूसी भाषा में बात करते। एक कमरे से दूसरे में भेज देते। हाँ दबी ज़ुबान में डॉलर जरूर बोल देते। मेरी समझ में आ गया कि ये लोग मुझसे रिश्वत चाह रहे हैं। फ्लाइट का डिपारचर अनाउंस हो चुका था और जहाज़ में बैठने के लिए मुसाफिरों ने लाइन लगानी शुरू कर दी थी। एक बार तो मैंने तय कर लिया कि 5-7 डॉलर इन के मत्थे मार कर पीछा छुड़वा लूँ पर एक आखिरी कोशिश की और मैंने ऐसा जाहिर किया कि मैं उनकी बात नहीं समझ पा रहा हों। थोड़ा गुस्सा भी दिखाया और इशारों से यह भी बताने की कोशिश की कि मैं उनके सीनियर अफसर के पास जाता हूँ। तीर निशाने पर बैठ गया और वे मेरा VCR ले आए।
मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि 1989 में रूस की आर्थिकी बिगड़ चुकी थी। हाथी के खाने के दाँत और, तथा दिखाने के और थे। अपने जिस रूबल का मूल्य उन्होंने डेढ़ डालर रख रखा था, उसका वास्तविक मूल्य 8 सेंट था। आज की तारीख में एक डॉलर के 70 रूबल मिलते हैं, यानि एक रूबल का मूल्य डेढ़ सेंट सेंट हो चुका है।
सुनते थे कि वहाँ सरकारी कर्मचारियों में बेईमानी और रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई थी जो हमने भी देख लिया था। वहाँ एक बात और बहुत अच्छी थी, अपराध लगभग नहीं के बराबर था।
जैसे ही हम अपने होटल में पहुंचे वहाँ डॉलर मांगने वालों के अतिरिक्त कुछ रूसी महिलाएं भी आ गईं और मेरी पत्नी को पूछने लगीं कि उसके पास कोई लिपस्टिक या अन्य कौस्मेटिक तो बिकाऊ नहीं हैं? ऐसा लगा वहाँ इन चीजों का अभाव था। वैसे हमारे देश में भी एक समय ऐसा ही था। लोग इंपोर्टिड चीजों के दीवाने हुआ करते थे।
उन दिनों जनवरी का महीना था और मास्को में बहुत ठंड थी। वे लोग स्नो कटर मशीनों से बर्फ हटा कर एक तरफ कर देते हैं। ये बर्फ के टुकड़े ऐसे लगते थे जैसे बड़ी बड़ी सफ़ेद पत्थर की चट्टानें, जैसी कांगड़े की खड्डों में होती हैं, हों। बाहर बाज़ार में खाने पीने की चीज़ें काफी सस्ती थीं। हाँ जिस होटल में हम रुके थे, वहाँ सब कुछ बहुत महंगा था।
मास्को की मेट्रो में हम दोनों
मास्को में जिस चीज़ ने हमें
सबसे अधिक प्रभावित किया, वह थी वहाँ की मेट्रो। हालांकि यह सेवा
काफी पुरानी है पर फिर भी बहुत अच्छी है। स्टेशन और प्लेटफॉर्म आदि ऐसे ऐसे लगते
हैं जैसे कोई पुरानी ऐतिहासिक इमारत हो। किराया केवल 10 कोपेक। इस किराये में पूरे
मास्को शहर आप जहां मर्जी चले जाएँ। हाँ मेट्रो में एक बहुत बड़ी परेशानी थी। सारे साइनबोर्ड
रूसी भाषा में थे। विदेशियों को आप अपनी मंज़िल पर पहुँच गए हैं या नहीं, यह पता लागाना असंभव था। क्योंकि साथ वाले मुसाफिर
आपकी भाषा नहीं समझते थे। इस मुश्किल का हमने एक हल निकाल लिया। हम चलने से पहले
जिस स्टेसन पर हमें उतरना होता था,
उसका नाम रूसी भाषा में एक कागज पर लिखवा लेते। फिर वह चिट हाथ में पकड़े रहते और साथ
बैठे मुसाफिरों को दिखाते रहते। वह हमारा तात्पर्य समझ जाते और जब भी हमारा स्टेशन
आता हमको बता देते। हमने यह मैसूस किया कि रूसी लोगों का रवैया हम भारतीयों के
प्रति बहुत मित्रवत और उदार था। अब सुनिए वापसी में हमारे साथ क्या बीती। हम एयर पोर्ट पर ठीक समय पर पहुँच गए थे। चैक इन करने के बाद मैं अपना VCR लेने कस्टम वालों के पास गया। पर वो तो जैसे अजनबी बन गए और मुझसे बहुत रूखेपन से पेश आने लगे। वे सभी रूसी भाषा में बात करते। एक कमरे से दूसरे में भेज देते। हाँ दबी ज़ुबान में डॉलर जरूर बोल देते। मेरी समझ में आ गया कि ये लोग मुझसे रिश्वत चाह रहे हैं। फ्लाइट का डिपारचर अनाउंस हो चुका था और जहाज़ में बैठने के लिए मुसाफिरों ने लाइन लगानी शुरू कर दी थी। एक बार तो मैंने तय कर लिया कि 5-7 डॉलर इन के मत्थे मार कर पीछा छुड़वा लूँ पर एक आखिरी कोशिश की और मैंने ऐसा जाहिर किया कि मैं उनकी बात नहीं समझ पा रहा हों। थोड़ा गुस्सा भी दिखाया और इशारों से यह भी बताने की कोशिश की कि मैं उनके सीनियर अफसर के पास जाता हूँ। तीर निशाने पर बैठ गया और वे मेरा VCR ले आए।
मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि 1989 में रूस की आर्थिकी बिगड़ चुकी थी। हाथी के खाने के दाँत और, तथा दिखाने के और थे। अपने जिस रूबल का मूल्य उन्होंने डेढ़ डालर रख रखा था, उसका वास्तविक मूल्य 8 सेंट था। आज की तारीख में एक डॉलर के 70 रूबल मिलते हैं, यानि एक रूबल का मूल्य डेढ़ सेंट सेंट हो चुका है।
सुनते थे कि वहाँ सरकारी कर्मचारियों में बेईमानी और रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई थी जो हमने भी देख लिया था। वहाँ एक बात और बहुत अच्छी थी, अपराध लगभग नहीं के बराबर था।
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