December 28, 2016

परमार, बहुत ही अच्छा देश है तुम्हारा भारत।



सन 1968 और 1969 में मैं कांगड़ा जिले के इंडो जर्मन प्रोजेक्ट में काम करता था। उस समय मेरी उम्र 29-30 साल थी। उस वक्त देश का कुछ ऐसा माहौल था कि लोगों को, विशेष कर नौजवानों को विदेश और विदेशी चीज़ें बहुत ही आकर्षित किया करती थीं। हम सब के दिमाग में यह बात बहुत बुरी तरह समाई हुई थी कि भारत की हरेक चीज़ घटिया है और स्वर्ग तो यूरोप या अमरीका में है। उस समय लगभग हरेक नौजवान का यही सपना था कि जैसे भी हो सके वह विदेश पहुँच जाये।
इंडो जर्मन प्रोजेक्ट में हमारे प्रोजेक्ट लीडर डा॰ ग्विल्डिस थे। वे एक एग्रोनोमिस्ट थे और पिछले कई सालों से भारत में रह रहे थे।  वे अक्सर हम लोगों से कहा करते थे कि तुम्हारा देश बहुत ही अच्छा है। मुझे उनकी बात का कभी भी विश्वास नहीं हुआ। मैं सोचा करता था कि यह जर्मन हमको खुश करने के लिए ऐसा कहता रहता है। भला हमारा उनसे क्या मुक़ाबला

भारत की वह जो बहुत सी अच्छाइयाँ बताया करता था उनमें से एक यह भी थी कि देखो तुम्हारे देश में एक साल में दो मौसम (फसलें उगाने के दो मौसम यानि रबी और खरीफ के मौसम) होते हैं। में अपने मन में सोचा करता था कि इसमें कौन सी बड़ी बात है। सभी जगहों पर दो (सर्दी और गर्मी के) मौसम होते हैं। वह भारत की और भी कितनी बातों का गुणगान किया करता था। मुझे हमेशा लगता था कि यह जर्मन बहुत चालाक आदमी है और ऐसे ही हमारे यहाँ की तारीफ करता रहता है। उस समय तक मुझे विदेश जाने का कोई मौका नहीं मिला था। तब तक मैं भारत में भी दिल्ली से आगे नहीं गया था। 

बाद में मेरे लिए समय बदला और 1980 से मेरे विदेश जाने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक जारी है। इन पिछले 36 वर्षों में मैं बहुत घूमा हूँ और मुझे दुनिया के सभी महाद्वीपों  में जाने का अवसर मिला है। 

मुझे उत्तरी यूरोप में भी कुछ महीने बिताने का अवसर मिला। तब मैंने यह जाना कि मौसम के मामले में वहाँ के लोगों को कितनी मुश्किलें हैं और उनको कितनी मेहनत और खर्चा करना पड़ता है। और जब आपका खर्च ज्यादा हो तो उसे पूरा करने के लिए मजबूरन ज्यादा मेहनत भी करनी पड़ती है। 

उन देशों में, जिसमे उत्तरी अमरीका, कैनेडा आदि भी शामिल हैं, बहुत सर्दी पड़ती है। इसलिए वहाँ केवल रबी के मौसम की ही फसलें उगाई जा सकती हैं। इसका मतलब है उन देशों के वासियों को प्रकृति ने हमारे मुक़ाबले लगभग आधी फसलों के उगाने खाने से वंचित कर रखा है। वहाँ वे लोग सितंबर अक्तूबर के महीनों में अपनी गेहूं या जौ आदि की फसल काटते हैं और फिर ज़मीन को तैयार कर के दुबारा गेहूं बो देते हैं। उसके बाद वहाँ सर्दी और बर्फ पड़ जाती है। अप्रैल में जब सर्दी समाप्त होती है, तब यह बीज उगता है और पौधे बढ्ने शुरू होते हैं। सितंबर तक फसल काटने लायक होती है। हुई न साल की एक फसल। जबकि हमारे भारत के किसान साल में कम से कम दो फसलें और कहीं कहीं तो तीन भी, ले लेते हैं। मतलब हमारे देश की धरती को प्रकृति का दो से तीन गुना पैदा कर सकने का वरदान है जो वहाँ के लोगों को नहीं है।  

जब मैंने ये सब देखा, तो मुझे डा॰ ग्विल्डिस की कही बात बहुत याद आई कि “परमार, बहुत ही अच्छा देश है तुम्हारा भारत”। 

क्या हम इस बात में यूरोप और अमरीकियों के मुक़ाबले में अधिक भाग्यशाली नहीं हैं? हम हैं, बशर्ते हम अपने प्रकृतिप्रदत्त साधनों का समुचित उपयोग करें।


 बाल्सगार्ड, स्वीडन का डिवीज़न ऑफ़ फ्रूट  ब्रीडिंग, जहां मैंने छह महीने काम किया. 

मेरी पत्नी पुष्पा स्वीडन के मेरे एक सहयोगी के परिवार के संग हमारे घर में.

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