कई बार आप ऐसे व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, जिन्हें आप
उम्र भर नहीं भूल पते। मेरे परिचितों में एक ऐसे ही व्यक्ति थे मेजर जनरल वीरेश्वर
नाथ। 1968-1969 में मैं कांगड़ा के इंडो जर्मन प्रोजेक्ट में होर्टीकल्चर डेवेलपमेंट
औफिसर की पोस्ट पर कार्यरत था। मेरे साथ मेरा एक जर्मन सहयोगी एरिख मिखालोविच भी हुआ
करता था। उन दिनों मेरे उम्र 29-30 साल थी। पूरा कांगड़ा जिला हमारा कार्यक्षेत्र
था। तब तक ऊना ओर हमीरपुर भी कांगड़ा जिले के ही भाग हुआ करते थे।
ऊना जाते आते
हम नैना पुक्खर, जो ब्यास पुल से भरवाईं की ओर कोई 4-5 किलोमीटर पर स्थित
है, से गुजरा करते थे। वहाँ हमको सड़क के किनारे एक बहुत ही अलग तरह का मकान दिखा
करता था। बाद में हमें बताया गया की यह मेजर जनरल वीरेश्वर नाथ का मकान (बाहर से
यह साधारण “मकान” जैसा ही दिखता था) है।
मुझे काफी हैरानी होती थी की इतना बड़ा फौजी अफसर इस गाँव में कैसे रहने आ
गया था। यहाँ यह बताना भी ठीक रहेगा की उस समय की भारतीय सेना में गिने चुने ही
मेजर जनरल हुआ करते थे। इस हिसाब से वह उस जमाने में बहुत ही बड़े आदमी थे।
जनरल साहब को
बाग़बानी का शौक था और वे अधिकतर अपनी बगिया में ही पौधो की गुड़ाई करते मिला करते
थे। बागबानी के कारण उनसे हमारा भी परिचय हो गया। फिर हम जब भी उस रास्ते से
गुजारते थे, तो उनके पास कुछ समय के रुक लिया करते थे।
ये साँवले रंग, माध्यम कद और
बहुत गठीले बदन के रौबदार व्यक्तित्व के मालिक थे। जब पहली बार हम उनसे मिले
मिखालोविच के मुंह से एक दम निकल गया “He looks like a general”.
जब हम उस “मकान” जैसे दिखने वाले घर में दाखिल हुए, तो वहाँ भीतर का नज़ारा ही और था। उस घर में कई कमरे थे। एक कमरे में उन्होंने अपना दफ्तर बना रखा था जो कि बहुत बड़ा और सभी किस्म के फर्नीचर और दफ्तर की सभी सुविधाओं से परिपूर्ण था। इस दफ्तर की साज सज्जा देख कर मैंने मन ही मन सोचा कि अब यह व्यक्ति इस दफ्तर में क्या करता होगा।
जब हम उस “मकान” जैसे दिखने वाले घर में दाखिल हुए, तो वहाँ भीतर का नज़ारा ही और था। उस घर में कई कमरे थे। एक कमरे में उन्होंने अपना दफ्तर बना रखा था जो कि बहुत बड़ा और सभी किस्म के फर्नीचर और दफ्तर की सभी सुविधाओं से परिपूर्ण था। इस दफ्तर की साज सज्जा देख कर मैंने मन ही मन सोचा कि अब यह व्यक्ति इस दफ्तर में क्या करता होगा।
जनरल के एक
पुत्र और पुत्री थे। पुत्र उस समय सेना में केप्टन था। पुत्री, जो शायद बड़ी
थी, भारतीय विदेश सेवा में थी और उस समय स्विट्ज़रलैंड पोस्टिड थी। जनरल उस घर में
अपनी पत्नी और और कुछ नौकर नौकरानियों के साथ रहा करते थे। जनरल साहब की पत्नी
बहुत ही सादी, साधारण और गृहणी किस्म की महिला थी। वो फौजी अफसर की पत्नी बिलकुल नहीं दिखती थीं।
जनरल साहिब को
गुलाबों का बहुत शौक था। उनकी बग़िया में कई किसमों के गुलाब थे। जब भी मैं और मिखालोविच पेड़ लेने चंडीगढ़ जा रहे होते, तो वे हमसे
गुलाब के कुछ पेड़ लाने को अवश्य कहते। वे बहुत ही सहृदय और मेहमानवाज़ किस्म के
इंसान थे। जैसे ही हम उनके घर में दाखिल होते, उनका पहला
काम यह होता की वे बियर की एक बोतल और दो गिलास ले कर आ जाते और कहा करते की पहले
बियर पीकर तरो ताज़ा हो लो, काम की बात फिर करेंगे।
उनकी एक बात
जो मुझे उनमे काफी अलग लगी वो यह कि वो व्हिस्की या रम के दो पैग लेने के बाद
ही झूम जाया करते थे। तीसरे पैग लेने से
उनकी पत्नी उनको रोक दिया करती थी।
मैंने नोट
किया था कि उनके घर में 3-5 तक नौकर नौकरानियां हमेशा मौजूद रहा करते थे। जो मुझे
उनकी दो व्यक्तियों की गृहस्थी के लिए बहुत ज्यादा लगते थे। मैंने यह भी नोट किया
था कि जनरल साहिब के पत्नी काफी मेहनती किस्म की गृहणी थी और अधिकांश काम स्वयं ही
करने की कोशिश किया करती थीं।
एक बार मुझसे
रहा नहीं गया और मैने पूछ ही लिया कि घर में आप केवल दो ही व्यक्ति हैं और घर का
अधिकतर काम मैडम ही करतीं है, तो फिर इतने नौकरों की क्या जरूरत है।
इसपर जनरल
साहिब ने जो कहा वो मुझे अभी तक नहीं भूलता। वो कहने लगे कि मैं अपने फौज के सेवा
काल में एक डिवीज़न का कमांडर रहा हूँ और सैकड़ों आदमियों पर हुकम चलाता रहा हूँ। तो
आज अगर जनरल वीरेश्वर नाथ के आवाज़ लगाने पर केवल एक ही आदमी “हाँ जी” कहे, तो फिर
जरनैली क्या हुई।
वो सचमुच ही
बहुत शानदार व्यक्तिव के स्वामी थे। उसके बाद कई वर्षों बाद उनसे मिलने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ। उनका बेटा मंडी कॉलेज में एनसीसी का अफसर लगा था और वे उसके पास मंडी
आए हुए थे। मुझे जब मालूम हुआ तो मैं उनसे मिलने खलियार, जहां उनका
बेटा रहता था, गया। हालांकि वे कुछ वृद्ध हो गए थे, पर उनकी आवाज़
में वो “जरनैली” रोब और खनक अब भी पहले जैसा ही था।