आप शीर्षक पढ़ कर मत चौंकिएगा. यह मैं नहीं कह रहा हूँ. ऐसा बताया करते
थे पेरिस के बारे में मेरे दादा के चचेरे भाई, जमादार गुसाऊँ राम, जब वे अपने विदेश
प्रवास के किस्से सुनाते थे.
आज से सौ साल पहले हिमाचलियों का विदेश जाना ना
के बराबर था. तब शायद किसी पहाडी रियासत का कोइ राजा बेशक इंग्लैण्ड या फ्रांस की
सैर कर आता होगा पर उन दिनों साधारण व्यक्ति के लिए लाहोर की यात्रा करना भी बहुत
बड़ी बात होती थी. अधिकतर लोगों का सफ़र हरिद्वार या कुछ दूसरे तीर्थ स्थानों तक ही सीमित
हुआ करता था.
फिर पहला विश्व युद्ध आया और उसमें भाग लेने के
लिए भारत से सिपाही भरती किये गए. इनमें मंडी, बिलासपुर कांगड़ा इलाकों से भी बहुत
लोग गए. ये पहाड़ों से पहले लोग थे जिन्होंने यूरोप देखा. इस कारण इन लोगों का समाज
में बहुत सम्मान था.
जमादार गुसाऊं, जिनको गाँव के सब लोग जमादार
मियाँ और हम लोग जमादार दादा कहा करते थे, अपनी नौकरी के दौरान मिडल ईस्ट और यूरोप
में फ्रांस तक हो आये थे. वो शायद अपने काम में बहुत अच्छे होंगे और इसलिए फ़ौज में
जमादार (अब नायब सूबेदार) के पद तक पहुँच गए थे जो उस समय सेना में भारतीयों के लिए
काफी बड़ा ओहदा हुआ करता था. उन्हें उनकी सेवा के पुरस्कार स्वरुप मुल्तान
(पकिस्तान) में ज़मीन के मुरब्बे भी दिए गए थे.
पहले गाँव में लोग चौकोर घरों में (जिनको चौकी
कहा जाता था, रहा करते थे. एक चौकी में कई परिवार रहा करते थे. हमारे परिवार की भी
गाँव में चौकी थी. उन दिनों मनोरंजन का कोइ साधन नहीं हुआ करता था. शाम को खाना
खाने के बाद मर्द लोग चौकी की बाहर की साइड के बरामदे में इकठ्ठा हो कर बैठ जाया
करते थे, हुक्का पीते थे, और गपशप किया करते थे. शराब पीने का उस वक्त वक्त प्रचलन
नहीं था, फौजियों में भी. मैंने अपनी दादा की पीढी के किसी बुज़ुर्ग को शराब पीते
ना देखा और ना सुना. सर्दी के दिनों में वहीं बरामदे में बनी एक बड़ी सी अंगीठी,
जिसे मंड्याली में गीठा कहते थे, सेंकने के लिए आग जला ली जाती थी. आस पास के घरों
के कुछ और भी लोग आ जाया करते थे. बुज़ुर्ग लोग अपने समय के किस्से सुनाया करते थे
जिसे हम बच्चे बहुत ही कुतुहलपूर्वक सुना करते थे. हम मंडी में रहते थे पर जब
स्कूल में छुट्टियां होती थी तब मैं और मेरी माता जी हमारे गाँव भद्रोही में
संयुक्त परिवार में कुछ दिन बिताने चले जाते थे. उसी समय ऐसे किस्से सुनने को मिला
करते थे.
जमादार दादा एक किस्सा कई बार सुनाया करते थे. वह
बताते थे कि जब उनकी फ़ौज लड़ाई में जीत कर फ्रांस के पेरिस शहर में दाखिल हुई तो
उनका बहुत ही शानदार स्वागत हुआ. फ्रांस की मेमें हम फौजियों से चिपक जाया करतीं
थी. कई बार वे हम फौजियों को खुले में ही “किस” कर लिया करती थीं. यह बात सब लोगों
को बहुत ही प्रभावित करती थी क्यों हिन्दुस्तानी के लिए, मेम का चिपक जाना और किस
करना, वो भी आज से नब्बे साल पहले बहुत बड़ी उपलब्धि थी. उस वक्त तो हम नहीं समझ
पाते थे, पर मुझे अब पूरा विश्वास है कि जमादार दादा और उन जैसे बाकी फ़ौजी भी,
बातों को खूब बढ़ा चढ़ा कर बताया करते होंगे.
फिर वो पेरिस शहर के बारे में बताया करते थे.
क्या खूबसूरत शहर है पेरिस. सड़कें ऐसी साफ़ कि जैसे शीशे के बनी हों. फिर वो जब
पेरिस की याद में ज्यादा इमोशनल हो जाते थे, तब कहते थे पेरिस में उस वक्त परियां
उड़ा करती थीं. फिर बाद में धीरे से यह भी कह देते, “मुझे पता लगा है कि उन परियों
में से दो चार तो अब भी हैं”. सुनने वाले सोचते कि जमादार मियाँ कितने भाग्यशाली
हैं जो परियां भी देख चुके हैं.
मुझे सन 1984 में पेरिस जाने का मौक़ा मिला. यह मेरा
यूरोप आने का पहला अवसर था. मैं इंग्लैण्ड आया था. मेरा नाम यूं एन वोलंटीयर की
पोस्ट के लिए भेजा गया था. मुझे उस सिलसिले में जनेवा के संयुक्त राष्ट्र कार्यालय
में लोगों से मिलना था. मैं इंग्लैण्ड से रेल द्वारा जनेवा गया. वापसी पर तीन दिन
के लिए पेरिस घूमने लिए रुक गया. पेरिस पहुंचाते ही मुझे जमादार दादा की सुनाई
परियों वाली बात याद आ गयी.
1984 में मैं अपनी उस पेरिस यात्रा के दौरान मैं पेरिस के प्रसिद्ध लूव म्यूजियम के उस
कक्ष में जहां विभिन्न मूर्तिकारों द्वारा बनाई यूनानी देवी वीनस की ही मूर्तियाँ रखी गयी हैं.
मैं पेरिस में लगभग सभी जगह घूमा और सभी मुख्य
स्थान देखे. असल में मैं न्यूयॉर्क से लन्दन होता हुआ भारत आ रहा था. न्यूयॉर्क
में भी मैं एक सप्ताह रुका था और उस शहर को जी भर के देखा था. इंग्लैण्ड में मेरा
एक पुराना दोस्त रहता है, मैं उसी के पास रुका था.
उन दिनों आज की तरह टेलीफोन नहीं थे. इसलिए
चिट्ठियों से ही काम चलाते थे. मेरे माता पिता मंडी में रहा करते थे और पत्नी और
बच्चे सोलन में. जब भी किसी प्रसिद्द स्थान पर पहुंचता तो वहां का पिक्चर पोस्ट
कार्ड खरीद कर घर भेज दिया करता.
पेरिस में भी मैंने पिक्चर पोस्ट कार्ड खरीदे और
एक कार्ड ख़ास तौर पर मैंने अपनी माता जी को लिखा. वो पढी लिखी नहीं थी और लन्दन,
पेरिस या जनेवा कहाँ हैं यह नहीं जानती थीं. उनको यह समझाने के लिए कि मैं अब कहाँ
हूँ, मैंने लिखा था, “अम्मां जी आज मैं उस शहर में हूँ जिसके बारे में जमादार दादा
बताया करते थे कि वहां परियां उडती हैं. पर मुझे तो अभी तक कोइ परी नहीं दिखी.”.
मेरी स्वर्गीय माता शांता देवी
Lovely post.
ReplyDeleteInformative
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