कुछ दिन पहले मैंने शशि वारियर द्वारा लिखित अंगरेजी पुस्तक “THE
HANGMAN’S JOURNAL” पढी. यह पुस्तक जनार्दन पिल्लै के बारे में है जो तीस साल तक पहले
त्रावणकोर रियासत और बाद में केरल राज्य में मृत्यदंड प्राप्त कैदियों को फांसी
देने का काम करता रहा. यह उसका पुश्तैनी काम था.
लेखक के अनुसार यह
पुस्तक जनार्दन के स्वलिखित नोट्स पर आधारित है. मेरी नज़र में यह अपनी किस्म की
पहली पुस्तक है. हालाँकि इसकी भाषा थोड़ी उबाऊ है, पर फिर भी यह पुस्तक काफी
दिलचस्प है और फांसी की सज़ा, सज़ा पाने वाले अपराधी और फांसी देने वाले जल्लाद के
बारे में बहुत जानकारी देती है और पठनीय है.
शशि वारियर की वह पुस्तक जिसे पढ़ कर मुझे यह लेख
लिखने की प्रेरणा मिली.
लिखने की प्रेरणा मिली.
यह पुस्तक पढने के बाद
मुझे वह व्यक्ति याद आ गया जो रियासत कालीन मंडी में अभियुक्तों को फांसी पर टांगा
करता था. फांसी देने का काम मंडी में आज की जेल रोड पर, जेल से आगे सरकारी कॉलोनी
के आखिर में जो नाला है, जिसको आज “ब्यून्सू का नाल” कहते हैं, उसके किनारे किया
जाता था. कहते हैं कि वहा पर एक मरिह्न्नू का बड़ा सा पेड़ होता था जिसकी एक टहनी से
अपराधी को लटका कर फांसी दे दी जाती थी. यह काम खुले में हुआ करता था. इसके साथ ही
हमारे पौने दो बीघा जमीन थी जो मेरे पिताजी ने इस विचार से ली थी कि कभी मंडी में
घर बना लेंगे. इस जमीन पर आज P W D कालोनी और शिव मंदिर है.
मेरे पिताजी मंडी राजा
के निजी स्टाफ में थे और इसलिए हम पैलेस के पास बने स्टाफ क्वार्टरों में रहते थे.
बाद में जब हिमाचल बना तो हम को वहां से आना पडा और जेल रोड के पुराने सरकारी मकान
में रहने आ गये. यह 1948 की बात है. तब मेरे पिताजी ने इस “ब्यून्सू के नाल” वाली
जमीन पर अपना घर बनाने का इरादा किया और इसके लिए पत्थर आदि भी मंगवा कर रखा लिए.
पर सब लोग मेरे पिताजी को कहने लगे कि इस जगह पर घर बनाना ठीक नहीं रहेगा क्योंकि
यहाँ फांसी दिया करते थे इसलिए यह जगह जरूर भुतही होगी. इस बात का मेरे पिताजी पर
इतना असर हुआ कि उनहोंने उस जगह पर घर बनाने का विचार त्याग दिया और जमीन का नया
प्लाट, जहां हम अब रहते हैं, खरीद कर रहने के लिए घर बनवाया.
मंडी की टारना पहाडी की वह चट्टान
जहां वह जल्लाद रहा करता था.
अब आते हैं मुख्य बात पर.
जब हम पैलेस से जेल रोड रहने आये थे, वहां कई बार एक सफ़ेद कपड़ों वाला साधू किस्म
का बुज़ुर्ग कुछ मांगने आ जाया करता था. मैं उसे “साधू” न कह कर “साधू किस्म का” इस
लिए कह रहा हूँ कि वह भगवे कपड़ों के बदले सफ़ेद धोती बनयान या कुरते में होता था.
और एक बार राम राम कह कर अपने आने के बारे में सूचित कर आँगन के एक कोने में बैठ
जाता था. उसके हाथ में एक अलुमिनियम का कटोरानुमा बर्तन होता था जो उसका भिक्षा
पात्र था. जिसको जो देना होता था उसमे डाल देता. वह चुपचाप लेकर चला जाता था. वह
किसी कोइ बात नहीं करता था. इशारों से शुक्रिया अदा कर देता.
कुछ दिनों बाद मेरे
दादाजी, जो अधिकतर हमारे गाँव के घर में रहा करते थे, मंडी आये. उनकी उम्र काफी थी
और वो भी पहले राजा के निजी स्टाफ में काम कर चुके थे. एक दिन जब मेरे दादाजी बाहर
बरामदे में बैठे हुक्का पी रहे थे, तब वह मांगने वाला व्यक्ति आया. उसने जब मेरे
दादाजी को देखा तो उनको मियां लोगों का पारंपरिक अभिवादन “जयदेवा” कहा. दादाजी
उसको देख कर प्रसन्न हुए और उसे बैठने को कहा. वह कुछ दूर जमीन पर बैठ गया. दादाजी
ने उसका हाल चाल पूछा और और काफी देर तक दोनों बातें करते रहे. फिर दादाजी ने मेरी
माताजी से उसको कुछ खाने को देने को कहा. माताजी ने शाम का बना बटूहरू थोड़ी चीनी और
घी लगा के दे दिया. उन दिनों आने वालों की ऐसे ही आव भगत की जाती थी.
उसके जाने के बाद दादाजी
ने हमें बताया कि वो रियासत का सरकारी जल्लाद था और अपराधियों को फांसी देने का
काम करता था. वह वाल्मीकि समुदाय से था और अब सन्यासी हो गया था. शायद उसके मन में
अपने काम के कारण कोइ अपराध या पश्चाताप की भावना
आ गयी हो जिसे उसने संन्यास ले लिया हो. मुझे उसका नाम याद नहीं है. पर वह जेल रोड
के सामने टारना पहाडी पर जो एक बड़ी सी चट्टान है और जिस पर अब हनुमान आदि की मूर्तिया
भी बनी हैं, वहां एक खोह में रहा करता था. उसके परिवार में और कौन कौन थे, यह
मैंने नहीं पूछा. असल में मैं उस समय 8-9 साल का बालक था और इन बातों को नहीं
जानता था.
बहुत खूब।
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteVery interesting
ReplyDeleteVery nice sir
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