May 12, 2017

स्वीडन के नाज़ुक बदन वैज्ञानिक



मुझे 1988 विजिटिंग साइंटिस्ट के तौर पर छः महीने स्वीडिश यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चरल साइंसिज़ में काम करने का मौक़ा मिला था. वहां “Developing of new fruit crops for Sweden नाम का एक रिसर्च प्रोजेक्ट चला हुआ था जिसके अंतर्गत वे स्वीडन में पाए जाने वाले पांच वन्य फलों की खेती शुरू करना चाहते थे. क्योंकि मैं पिछले कई वर्षों से इस विषय पर कार्यरत था, इसलिए उन्हों ने मुझे इस काम में सहायता करने के लिए बुलाया था. उस समय मैं नौणी यूनिवर्सिटी में था और सोलन के निकट कंडाघाट के फल अनुसंधान केंद्र पर नियुक्त था. यह प्रोजेक्ट दक्षिणी स्वीडन बाल्सगार्ड नामक स्थान पर चला हुआ था. मेरे काम में एक स्वीडिश महिला वैज्ञानिक कैटरीना वाह्लबर्ग मेरी सहयोगी थी. 


 बाल्सगार्ड बिल्डिंग के बाहर हम दोनों
 
       हमारे इस प्रोजेक्ट में एक काम इन पांच फलों का रासायनिक विश्लेषण करके इनमें विद्यमान पौष्टिक तत्त्वों की मात्रा का पता लगाना भी था. इसके लिए हम प्रयोगशाला में इन फलों का रासायनिक विश्लेषण किया करते थे. रासायनिक विश्लेषण के लिए एक अलग प्रयोगशाला थी और सारे वैज्ञानिक अपने अपने प्रोजेक्टों के फलों का विश्लेषण वहीं किया करते थे.
       जब हमें किसी फल में विद्यमान पौष्टिक तत्त्व का पता लगाना होता है तो सबसे पहले हम उस फल का १०-२० ग्राम गूदा लेते हैं और फिर इस गूदे को ब्लेंडर (देसी भाषा में मिक्सी) में पानी में मिक्स करते हैं. प्रयोगशाला के लिए ब्राउन कंपनी के ब्लेंडर सबसे उपयुक्त पाए  गए थे और सभी इनका ही उपयोग करते थे. गूदे को मिक्सी में डाल कर एक डेढ़ मिनट घुमाना काफी होता था. भारत में यह एक बहुत ही साधारण काम है और सभी औरतें मर्द इसे घर में भी करते हैं. 

 
 एक मित्र के घर क्रिसमस की पार्टी

पर वहां मैंने देखा कि जब भी किसी को मिक्सी चलानी होती थी तो वह पहले अपने कान पर एक विशेष किस्म के हैडफोन लगाता था और तब मिक्सी को चलाता था. जब मैने इस बारे में अपने एक साथी से पूछा तो उसने बताया कि स्वीडन के स्वास्थ्य विभाग के विशेषज्ञों ने मिक्सी से पैदा होने वाली ध्वनि को मापा है और यह पाया है कि इसकी ऊंची आवाज़ आपके कानों के पर्दों को नुक्सान पहुंचा सकती है. इसलिए उनका आदेश है प्रयोगशाला में काम करने वालों को यह विशेष ध्वनि निरोधक हैडफोन उपलब्ध कराये जाएँ और इनका उपयोग करने को कहा जाय. मुझे यह बात काफी हास्यास्पद लगी पर “Do in Rome as Romans do” वाली कहावत का अनुसरण करते हुए मैंने भी सबकी तरह इनको लगाना शुरू दिया.  

       हमें फलों में मौजूद शुगर का भी पता लगाना होता है. इस काम के लिए टाईट्रेशन की विधि अपनायी जाती है. यह टाईट्रेशन उबलते हुए रासायनिक मिश्रण, फैह्लिंग्ज़ सोल्यूशन के साथ की जाती है. टाईट्रेशन के लिए फैह्लिंग्ज़ सोल्यूशन को एक बीकर में हीटर के ऊपर रख कर गर्म करते हैं. जब वह उबलना शुरू हो जाता है तो उसमे बूँद बूँद कर फलों का रस टपकाते हैं. जब सोल्यूशन का रंग बदल जाता है, तब रीडिंग नोट कर बीकर को हीटर से उतार लेते हैं. भारत में यह बहुत ही साधारण सा काम है. पर स्वीडन के वासियों के लिए यह साधारण नहीं था. वहां प्रयोगशाला में इस काम को करने के लिए quilted दस्ताने, जैसे रसोई में गृहणियां गर्म बर्तन पकड़ने के लिए प्रयोग करती हैं, रखे हुए होते थे और वे लोग इन ये दस्ताने पहन कर ही गर्म बीकरों को छुआ करते थे. भारत में किसी ने भी कभी इनकी जरूरत मैसूस नहीं की.
 
       क्रिसमस के त्यौहार पर मेरे एक सहयोगी के परिवार संग मेरी पत्नी पुष्पा

       जब मैंने इन बीकरों को नंगे हाथों से छूना शरू किया तो उन लोगों को बहुत हैरानी हुई. मुझे मेरी महिला साथी ने कहा कि रैक पर दस्ताने रखे हैं और में उनको पहन लिया करूं. पर मुझे दस्तानों की बिलकुल भी जरूरत मैसूस नहीं होती थी और अपना काम वैसे ही करता रहता था. 

       एक दो दिन के बाद में मैंने यह मैसूस किया कि उन लोगों ने मेरे बारे में ये सोचना शुरू दिया कि ये कैसा अजीब आदमी है इसको हाथों पर गर्म बीकर का कोइ असर ही नहीं होता. तब मैंने मन में यह निर्णय किया कि अब मैं भी इन्हीं लोगों जैसा गुलबदन बन जाऊंगा वरना ये लोग शायद मुझे असभ्य और जंगली देश से आया समझ लेंगे. और उसके बाद मैं जितने दिन वहा रहा वैसा ही करता रहा.

       सचमुच ही हम, विशेषकर पुरानी पीढी के लोग, योरोपीय लोगों के मुकाबले बहुत सख्त है. यही कारण है कि विदेशों में, विशेष कर पिछड़े देशों में भारतीय विशेषज्ञों को योरोपीय अमरीका के देशों के मुकाबले में अधिक पसंद किया जाता है और अधिक सम्मान पूर्वक देखा जाता है.  

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