साहिर लुधियानवी द्वारा लिखे फिल्म प्यासा के एक प्रसिद्ध गीत, “ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है” में एक पंक्ति है, “ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती”। यह बात सौ फीसदी सच है। यहाँ ऐसा ही होता है। इस सच्चाई का मैं आपको हिमाचल प्रदेश से ही एक उदाहरण दूंगा।
हिमाचल में काँगड़ी बोली के एक बहुत ही लोकप्रिय लोक गायक हुए हैं, प्रताप चंद शर्मा। वह अपने जमाने में स्टार लोक गायक हुआ करते थे और अपने कार्यक्रमों में खूब तालियाँ बटोरा करते थे। उनके गाये गीत आकाशवाणी शिमला से भी खूब बजा करते थे। वैसे वह बहुत साधारण व्यक्ति थे और शायद बहुत पढे लिखे भी नहीं थे। पर आवाज़ और प्रतिभा के धनी थे। वह अपने गीत स्वयं ही लिखा करते थे और उन्हें संगीतबद्ध भी खुद ही किया करते थे। उनका गाया एक गीत, “जीणा कांगड़े दा” बहुत ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय रहा है।
वह जनसम्पर्क विभाग कांगड़ा
से सम्बद्ध रहे। मैं 1968-69 में धर्मशाला में हौर्टीकल्चर डेवेलप्मेंट ऑफिसर हुआ
करता था। हमारे दफ्तर के साथ वाली इमारत में डिस्ट्रिक्ट पब्लिक रिलेशंज ऑफिसर
(डीपीआरओ) का दफ्तर हुआ करता था। डीपीआरओ प्रोफेसर (अब स्वर्गीय) चंदरवरकर हुआ
करते थे। वे मेरे मित्र थे और मेरा उनके साथ अकसर बैठना हुआ करता था। वहाँ कई बार
प्रताप चंद जी से भी मुलाक़ात होती रहती थी। मैं इसी ख्याल में था कि प्रताप चंद जन
संपर्क विभाग के स्थायी कर्मचारी हैं।
43 वर्ष बाद फरवरी 2013
में प्रताप चंद जी से कांगड़ा के टांडा में अचानक मुलाक़ात हो गई। उस दिन मैडिकल
कॉलेज के सभागार में दिव्य हिमाचल समाचार पत्र वालों का वार्षिक पुरस्कार समारोह
था। इस समारोह में प्रताप चंद जी को उस वर्ष का “हिमाचली ऑफ द ईयर” सम्मान मिलने जा
रहा था। दिव्य हिमाचल के इस पुरस्कार में उनके अन्य पुरस्कारों की तरह केवल
मोमेंटों ही नहीं होते, परंतु 50,000 रूपये की नकद राशि भी होती है। प्रताप चंद जी
को उनको परिवार वाले यह पुरस्कार ग्रहण करने एक जीप में लेकर आए थे। इसी समारोह
में मुझे भी उस वर्ष का “साइंटिस्ट ऑफ द ईयर” पुरस्कार मिलना था और मैं भी परिवार
सहित मंडी से टांडा आया था। मैंने प्रताप चंद जी को पहचान लिया और इतने वर्षों बाद
उनको देख कर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने उनसे बात भी की और उनको धर्मशाला के दिनों की
याद दिलायी।
पुरस्कार प्राप्त कर रहे श्री प्रताप चंद शर्मा
मुझे लगा कि वे सुखी नहीं
थे। आर्थिक संकट में भी लगे। असल में मुझे इस बात का उस दिन ही पता लगा की वे जन
संपर्क विभाग के स्थायी कर्मचारी नहीं थे बल्कि कैजुअल आर्टिस्ट थे। इसलिए उनको
विभाग की ओर से कोई पैंशन आदि भी नहीं लगी थी। बहुत दुखी मन से उन्होंने मुझ से
कहा कि साहब गाने में वाहवाही तो खूब मिली पर पैसा कोई नहीं मिला। हमारे समाज में निखट्टू
बूढ़ों को परिवार में कितना सम्मान मिलता है, यह सभी जानते हैं।
उस दिन के समारोह में
उन्होंने अपना प्रसिद्ध गीत, “ठंडी ठंडी हवा जे चलदी, हिलदे
चिल्ला दे डालू, जीणा कांगड़े दा” भी गाया जिस पर सारा हाल तालियों
से गूंज गया। मेरे लिए यह बहुत ही हृदय स्पर्शी दृश्य था। मुझे विश्वास है कि उन
हालात में दिव्य हिमाचल द्वारा दिये गए उन 50,000 रुपयों
से उनको काफी सहारा मिला होगा।
20 नवंबर 2018 को 90 वर्ष
की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। सभी अखबारों में यह खबर छपी। अन्य लोगों के
अतिरिक्त प्रदेश के गवर्नर आचार्य देवव्रत और मुख्य मंत्री जय राम ठाकुर तक ने
उनको श्रद्धांजलियां दी। तब सरकार को भी उनके योगदान की याद आई और उनको एक लाख
रुपयों का “मरणोपरांत” पुरस्कार दिया गया।
काश उनके जीवनकाल में भी
उनकी कोई आर्थिक सहायता हो पाती।
ऐसे में मन में सवाल उठता
है कि क्या हम सचमुच ही मुर्दापरस्त नहीं हैं?