एक दिन मैंने जब टी वी पर वाघा बॉर्डर पर रोज शाम को होने वाला “बीटिंग द
रिट्रीट” समारोह देखा तो मुझे 60 साल पहले का वह दिन याद आ गया जब मैं पहली बार
वहां गया था. आज वाघा के इस समारोह को देखने वहां कई हज़ार लोग रोज़ जाते हैं. वहां
दर्शकों के लिए विशेष दर्शक दीर्घाएं बन
चुकी हैं जहां 15 से 20,000 लोग बैठ
सकते हैं. ऐसा ही दृश्य पाकिस्तान की ओर ही दिखता है. वास्तव में रोज़ शाम को होने
वाला यह समारोह आज एक विशाल व्यापारिक टूरिस्ट इवेंट बन गया है और दोनों ओर के
वासियों के लिए आमदनी का साधन भी हो गया है. पर शुरू में यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था.
आज वहां जाने वाले लोग ये सोच भी नहीं सकते कि वाघा बॉर्डर कभी ऐसा भी हुआ करता
था.
आज के वाघा बॉर्डर के कुछ दृश्य
वाघा बॉर्डर के द्वार
पाकिस्तान की ओर की दर्शक दीर्घा में बैठे पाकिस्तानी नागरिक
भारतीय दर्शकों के बीच मैं और मेरा मित्र राजेन्द्र वर्मा
आज के दोनों देशों के विशाल द्वार भी वहां नहीं थे। इसके बजाय दो छोटे छोटे गेट थे, बिलकुल उसी साइज़ के जैसे कि आज चंडीगढ़ की कोठियों के होते हैं. दोनों गेटों पर भारत और पाकिस्तान का एक एक सैनिक, लगभग एक दूसरे से सटे हुए, खड़े होते थे. दोनों गेटों के बीच में सड़क पर एक कोइ तीन इंच चौड़ी, सफ़ेद रेखा बनी थी, जो अंतर्राष्ट्रीय सीमा को दरसाती थी.
मैं पहली बार वहां 1958 में गया था. उस समय मैं
लुधियाना के गवर्नमेंट एग्रीकल्चर कौलेज (तब अभी पंजाब ऐग्रिकचरल यूनिवर्सिटी नहीं
बनी थी) में बीएससी फाइनल का छात्र था. मेरा मेजर विषय होर्टीकल्चर था. वाघा के
साथ अटारी में उस समय कृषि विभाग का एक फल अनुसंधान केद्र हुआ करता था. हम
होर्टीकल्चर के छात्रों को उस अनुसंधान केंद्र को दिखाने के लिए कॉलेज की ओर से वहां
ले जाया जाता था. अटारी का यह टूर भी हमारे पाठ्यक्रम का एक हिस्सा था.
हम लुधियाना से रेल द्वारा पहले अमृतसर और फिर
रेल से ही अमृतसर से अटारी गए. अटारी उस लाइन का अंतिम भारतीय रेलवे स्टेशन है.
जब हम लोगों ने रिसर्च स्टेशन देख लिया तो हम
में से 4-5 मित्रों ने पाकिस्तान सीमा देखने का निश्चय किया. हम सड़क पर पैदल आगे
बढ़ रहे थे. सड़क के एक ओर पुलिस, कस्टम और अन्य
विभागों की चेक पोस्टें थी. उन दिनों भारत में शायद पाकिस्तान के मुकाबले सोना
महँगा हुआ करता था इसलिए सोने की स्मगलिंग होती थी. कस्टम वाले इसी पर ही अधिक
ध्यान दिया करते थे.
सड़क पर कोइ आवाजाही नहीं थी. हमको एक पुलिस वाले
ने पूछा तो हमने उसे बताया कि हम छात्र हैं और लुधियाना से अटारी का बागीचा देखने
आये थे. अब बॉर्डर देखना चाहते हैं. पुलिस वाला हरियाणा का था. हम में एक छात्र
रोहतक का भी था जिसे उस पुलिस इंस्पेक्टर ने पहचान लिया. वह भला ज़माना था. इसलिए पुलिस
इंस्पेक्टर ने हमसे बहुत अच्छा बर्ताव किया और फिर कहने लगा कि बेटो चलो मैं तुमको
बॉर्डर दिखाता हूँ. उसने हमको पहले पुलिस और फिर कस्टम के दफ्तर दिखाए और वे चीजें
भी दिखलाई जिनका उपयोग स्मगलर लोग छुपा कर सोना लाने के लिए किया करते थे.
हम आगे बढ़ते गए. आगे एक जगह दो गेट बने थे. जब
हम गेटों के पास पहुंचे, तो वहां मौजूद
पुलिस वालों ने हमको रोका और कहा कि यहाँ भारत की सीमा समाप्त होती है और इससे आगे
जाने के लिए हमारे पास पासपोर्ट और पाकिस्तान का वीजा होना चाहिए. मैं यहाँ बताना
चाहूंगा कि सारी बातचीत बहुत ही सद्भावपूर्ण वातावरण में हो रही थी. दोनों ओर की
पुलिस वाले हमसे बहुत ही प्रेमपूर्ण तरीके से बात कर रहे थे.
वहां दोनों ही देशों के पुलिस वाले थे. ड्यूटी
वाले दो सिपाहियों को छोड़ कर बाकी सादे लिबास में थे. वहां एक बहुत ही दिलचस्प बात
हुई. पाकिस्तान के एक पुलिसमैन, जो शायद सब
इंस्पैक्टर रैंक का था, ने मुझसे पूछा
की बेटे तुम कहाँ से हो. उसने मेरी बात के लहजे से अंदाज लगा लिया था कि मैं मंडी
साइड से हूँ. मैंने उसे बताया कि मैं मंडी से हूँ. यह जान कर वह बहुत प्रसन्न हुआ
और उसने मेरे कंधे थपथपा कर अपनेपन का इज़हार किया. उसने बताया कि वह भी उसी इलाके
से है. फिर उसने आगे कहा कि उनका घर भाम्बला में था और वहीं से उनका परिवार पाकिस्तान
आया. उसने हमसे कहा कि अगर हम चाहें तो वो हम को कुछ दूर आगे तक पाकिस्तान में ले
जा सकता है. पर हम घबरा गए. एक साथी चुपके से बोला कि यार इन पाकिस्तानियों क्या
ऐतबार, कहीं उस तरफ ले जा कर कैद ही
कर लें. हम उन सब का शुक्रिया अदा कर के वापिस आ गए.
1979 का वाघा बॉर्डर - गेट पर मैं, मेरी पत्नी और दोनों पुत्रियाँ
उसके 12 साल बाद 1979 में मुझे दोबारा वहां जाने
का मौक़ा मिला. तब मैं सोलन में कार्यरत था. हमें एक शादी में धर्मशाला जाना था. हमने
तय किया कि सोलन से रेल मार्ग से अमृतसर होते हुए पठानकोट पहुंचा जाए और फिर वहां
आगे लिए बस ले ली जाए. हम चाहते थे कि हमारी दोनों बेटियां रेल के सफ़र का आनंद ले
लें और उनको हम अमृतसर का स्वर्ण मंदिर और वाघा बॉर्डर से विदेश (पाकिस्तान) की भी
झलक दिखा दें. उस वक्त भी वाघा बॉर्डर वैसा नहीं था जैसा आज है (देखें चित्र).
हालांकि शाम को दोनों देशों के झंडे तब भी उतारे जाते थे. पर आज के जैसा माहौल
नहीं होता था. इस समारोह का टूरिज्म के लिए उपयोग करने का यह जबरदस्त बिजनेस
आइडिया पता नहीं किस को आया. पर जो भी हो वह आदमी दिमाग वाला होगा क्योकि इस रोज
के 30-40 मिनट के कार्यक्रम ने वहां के दोनों
देशों के निवासियों के लिए आमदनी का अच्छा खासा साधन पैदा कर दिया है.
मुझे अपने संग्रह में हमारी इस 1979 की वाघा
यात्रा की एक कलर ट्रांसपेरैंसी मिली है जो मैं स्कैन कर के यहाँ दे रहा हूँ. इस
से आपको उस वक्त के और आज के वाघा में अंतर पता लग जाएगा.