March 15, 2017

जब बैलट पेपरों वाले चुनाव पर भी सवाल उठा था.



जब भी चुनाव में राजनैतिक दलों को अप्रत्याशित हार होती है, तो इनको दिमाग में पहली बात यही आती है की जरूर विरोधियों ने कोइ हेराफेरी की है. वरना वो तो कभी हार ही नहीं सकते थे. सारी परिस्थितियाँ उनके अनुकूल थीं. 
 
मायावती और केजरीवाल कह रहे हैं कि निस्संदेह वोटिंग मशीनों से कुछ ऐसी छेड़छाड़ की गयी है जिससे सारे वोट भाजपा को पड़ते रहे. केजरीवाल ने इलेक्शन कमीशन से कहा है कि दिल्ली के आगामी चुनावों में वोटिंग मशीनों से नहीं बैलट पेपरों से चुनाव कराये जाएँ. पर एक जमाने में हारे हुए नेताओं द्वारा बैलट पेपरों पर भी शक किया जा चुका है.
     मुझे साल तो ठीक से याद नहीं है पर शायद साठ के दशक की बात है. उस समय इंदिरा गांधी की कांग्रेस की ऐसी ही स्वीपिंग विक्टरी हुई थी. भारतीय जनसंघ बहुत ही बुरी तरह हारा था. उस समय जनसंघ के प्रेजिडेंट प्रो. बलराज मधोक थे, जिनका अभी हाल ही में 96 वर्ष की आयु में देहांत हुआ है. यह हार उन लोगों के लिए इतनी अप्रत्याशित थी कि उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि जनता ने उनको कांग्रेस के मुकाबले में इतनी बुरी तरह अस्वीकार कैसे कर दिया.
स्व. प्रोफ़ेसर बलराज मधोक

     हार के कारणों का विश्लेषण करने के बाद एक यह भी तर्क दिया गया था कि इंदिरा गांधी ने बैलट पेपर रूस में छपवाए थे. इन बैलट पेपरों के कागजों में कोइ ऐसा जादूई कैमिकल लगा था कि  मतदाता द्वारा लगाई कई मोहर का निशान कुछ देर में अपने आप मिट जाता था और कांग्रेस के चुनाव निशान पर प्रगट हो जाता. 
     पुराने लोगों को यह किस्सा जरूर याद होगा. इसका खूब प्रचलन हुआ था और जनसंघ वालों का, खासकर प्रो. मधोक का, इस बात पर बहुत मज़ाक उड़ा था.
     सो इस लिए इन हारे हुए दलों का यह सोचना कि वे वोटिंग मशीनों की गड़बड़ी के कारण हार गए वर्ना जनता ने तो उनें ही जिताया था, कोइ नयी बात नहीं है. खिसियानी बिल्लियाँ सदा से ही खम्बे नोचती आयीं हैं.       

March 12, 2017

स्वीडन में मिलता था बेरोजगारी भत्ता




हिमाचल सरकार ने अभी कुछ दिन पहले ही युवकों (?) को बेरोजगारी भत्ता देने की घोषणा की है. यह निर्णय सही है या गलत, इस बारे में मैं कोइ टिप्पणी नहीं करना चाहता. यह काफी विवाद का विषय है. पर हाँ स्वीडन में सरकार द्वारा दिए जाने वाले इस किस्म के भत्ते के बारे में यहाँ कुछ बातें बताना चाहूँगा. 

मैंने सन 1988 में छह महीने के लिए स्वीडन में काम किया था. मैं वहां स्वीडिश युनिवर्सिटी  ऑफ़ एग्रीकल्चरल साइंसिज़ में गेस्ट सांटिस्ट के तौर पर गया था और मुझे इस काम के लिए उनकी ओर से फैलोशिप मिलती थी जिसके वहां के टैक्स क़ानून के हिसाब से वेतन जैसी ही आमदनी माना जाता था और जिस पर इनकम टैक्स देय था. मेरी पत्नी भी मेरे साथ थी. क्योंकि मुझे उन लोगों ने अपने काम के लिए बतौर कंसल्टेंट बुलाया था, इसलिए वहां के क़ानून के हिसाब से मैं उन सब अधिकारों और सुविधाओं का हकदार था जो वहां के नागरिकों को मिलते थे.

स्वीडिश यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चरल साइंसिस की मुख्य बिल्डिंग 

आज वहां क्या स्थिति है, इसका तो मुझे पता नहीं है, पर उस समय स्वीडन एक वैलफेयर स्टेट थी और शायद दुनिया की एकमात्र वैलफेयर स्टेट थी. कहते थे की स्वीडिश सरकार अपने नागरिकों की जन्म से लेकर अंतिम समय तक सारी देखभाल करती थी. उस समय स्वीडन के लोगों का स्टैण्डर्ड ऑफ़ लिविंग दुनिया के सब देशों से ऊंचा था. 

पर मैं यहाँ यह भी बता दूं कि यह सब फ्री नहीं था. उस समय तनख्वाह से 40 प्रति शत इनकम टैक्स सीधा कट जाया करता था और इसके अतिरिक्त सैलरी का 15 प्रतिशत एमपलॉयर सीधा सरकारी ख़ज़ाने में बतौर सोशल सिक्योरिटी जमा कराना होता था. सुनते थे की उस समय दुनिया में सबसे ज्यादा इनकम टैक्स स्वीडन में था. टैक्स के सारा हिसाब किताब कम्यूटर से होता था और यह सिस्टम ऐसा था की टैक्स की चोरी संभव नहीं थी. रिफंड वगैरा के लिए भी कोइ जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती थी.

अब आयें बेरोजगारी भत्ते पर. स्वीडन में 18 साल की उम्र से पहले कोइ नौकरी नहीं कर सकता था. यह क़ानूनन जुर्म था. पर जैसे ही कोइ १८ साल का होता, वह नौकरी का हकदार हो जाता. और अगर वह आगे पढने के बजाय नौकरी करना चाहता तो, सरकार को उसे 15 दिन के भीतर नौकरी देनी पड़ती. अगर ऐसा नहीं होता तो वह बेरोजगारी भत्ते का हकदार हो जाता और उसे यह भत्ता मिलना शुरू हो जाता. भत्ते की रकम काफी होती थी. वहां मिलने वाले न्यूनतम वेतन से थोड़ी ही कम.

पर इसमें कुछ शर्तें भी थी जिससे आसानी से इसका दुरूपयोग नहीं हो सकता था. आपको जो भी काम दिया जाता था, वह करना ही पड़ता था और जहां भी काम दिया जाता वहां जाना पड़ता था. हमारे यहाँ तो हरेक पढ़े लिखा कुर्सी मेज़ वाली नौकरी चाहता है और दूसरी किस्म की नौकरी वह स्वीकार नहीं करता. यूनिवर्सिटी में मेरी एक सहयोगी महिला वैज्ञानिक का पति शराब की सरकारी दूकान में सेल्ज़मैन था. हालांकि वह भी अपनी पत्नी की तरह प्रशिक्षित फल वैज्ञानिक था, पर उस समय फल विज्ञान के क्षेत्र में नौकरियां उपलब नहीं थी इसलिए उसे सेल्ज़मैन, वह भी शराब की दूकान में, का काम दिया गया था जो उसे स्वीकार करना पडा था.

पता नहीं हिमाचल सरकार बेरोजगारी भत्ता किस हिसाब से देगी और किन लोगों को देगी. क्योंकि यहाँ हरेक को अपनी पसंद की नौकरी चाहिए और वह भी अपने घर के पास.

March 8, 2017

*परमात्मा का शुक्र है की मैं उच्च शिक्षित, विद्वान् या ज्ञानी ना हुआ



मैंने कल ही ऋतू नंदा द्वारा लिखी राज कपूर की जीवनी पढ़ कर समाप्त कीमुझे जीवनियाँ और संस्मरण पढने का शौक है और मैं ऐसी पुस्तकें अक्सर खरीद लिया करता हूँ

इस पुस्तक को पढ़ कर लगा कि वह कितने जीनियस थे . राज कपूर ने स्कूल के बाद पढाई नहीं की थी . ना ही उन्होंने फिल्म निर्माण में कोइ डिग्री या डिप्लोमा किया थाउनहोंने अपनी पहली फिल्म आगकेवल २३ वर्ष की उम्र में बना ली थे.   २४ साल की उम्र में बरसातबनाई जो एक महान व्यावसायिक सफलता थी   जब वे २७ साल के थे तब उन्होंने आवाराबनाई जिसके कारण वे रूस, चीन और अन्य बहुत से देशों में भारतीय राजनेताओं जितने लोक प्रिय हो गए थे

इस पुस्तक में बहुत से प्रेरणादायक प्रसंग हैपर मुझे इस पुस्तक के पृष्ठ १६१ लिखी राज कपूर की इस  बात ने बहुत ही प्रभावित किया

        “ईश्वर का शुक्र है कि मैं उच्च शिक्षित नहीं हूँ. शुक्र है किताबी कीड़ा नहीं हूँशुक्र है कि मैं ज्ञानी नहीं हूँशुक्र है भगवान् का मैं एक मूर्ख और जोकर हूँमैं सीधा सादा और जमीन से जुड़ा आदमी हूँ और इसीलिये अपने जैसे लोगों के साथ संवेदना के स्तर पर एकाकार हो पाता हूँमैं आम आदमी के साथ मुस्करा सकता हूँ और उसकी पीड़ा में भागीदार बन सकता हूँ और उसी के सामान फुटपाथ पर बैठ कर उसकी खुशी में शामिल हो सकता हूँ.


क्या कभी आपको कोइ ऐसा व्यक्ति मिला जो कि इस बात का शुक्र मनाता हो कि ना तो वह उच्च शिक्षित है और ना ही ज्ञानी         .